SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 35) (सुखी होने का उपाय (२) पृष्ठ २६९ "करणानुयोग में जीवों के व कर्मों के विशेष तथा त्रिलोकादिक की रचना निरूपित करके जीवों को धर्म में लगाया हैं।" __"करण अर्थात् गणित कार्य के कारणरूप सत्र, उनका जिसमें 'अनुयोग' अधिकार हो वह करणानुयोग है।" __ (३) पृष्ठ २७० ."चरणानुयोग में नानाप्रकार धर्म के साधन निरूपित करके जीवों को धर्म में लगाते हैं।" पृष्ठ २६९ "जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर चरणानुयोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें यह सर्व आचरण अपने वीतराग भाव के अनुसार भासित होते हैं, एकदेश व सर्वदेश वीतरागता होने पर ऐसी श्रावकदशा-मुनिदशा होती है, क्योंकि इनके निमित्त-नैमित्तिकपना पाया जाता है, ऐसा जानकर श्रावक-मुनि धर्म को विशेष पहिचानकर जैसा अपना वीतराग भाव हुआ हो वैसा अपने योग्य धर्म को साधते हैं। वहाँ जितने अंश में वीतरागता होती है, उसे कार्यकारी जानते हैं, जितने अंश में राग रहता है, उसे हेय जानते है, सम्पूर्ण वीतरागता को परम धर्म मानते है।" (४) पृष्ठ २७१ "द्रव्यानुयोग में द्रव्यों का व तत्त्वों का निरूपण करके जीवों को धर्म में लगाते हैं। जो जीव जीवादिक द्रव्यों को व तत्त्वों को नहीं पहिचानते, आपको-परको भिन्न नहीं जानते, उन्हें हेतुदृष्टान्त-युक्ति द्वारा व प्रमाण नयादि द्वारा उनका स्वरूप इसप्रकार दिखाया है, जिससे उनको प्रतीति हो जावें। उसके अभ्यास से अनादि अज्ञानता दूर होती है।" पृष्ठ २८७ में भी कहा है कि "द्रव्यानुयोग में न्यायशास्त्रों की पद्धति मुख्य है, क्योंकि वहाँ निर्णय करने का प्रयोजन है, और न्यायशास्त्रों में निर्णय करने का मार्ग दिखाया है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy