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(सुखी होने का पाय मुख्यता से किये गये कथन को व्यवहारनय की प्रधानतावाला मान लेवे अथवा व्यवहारनय की प्रधानता से किये गये कथन को निश्चयनय की प्रधानतावाला मान लेवे, तो अनर्थ हो जावेगा। उल्टा (विपरीत) हो जावेगा, क्योंकि दोनों नयों के विषय परस्पर विरुद्ध होते हैं, इसलिये कथन का यथार्थ अभिप्राय समझने के लिये आवश्यक नयज्ञान का प्रयोग भी अत्यन्त आवश्यक है।
मतार्थ :- मतार्थ से अभिप्राय है कि प्रस्तुत विषय किसप्रकार की मान्यतावाले की भूल निकालने की दृष्टि से किया गया है। वह पहिचानना उक्त कथन का मतार्थ है। हर एक कथन किसी मिथ्या-मान्यता को ठीक दिशा में लाने की दृष्टि से ही किया जाता है। जैसे जिसकी पराधीन, संयोगाधीन दृष्टि हो, वह हर कार्य का संपादन संयोग से हुआ मानता है, तो उसकी उस मान्यता को मिटाकर स्वभावदृष्टि, स्वाधीनदृष्टि कराने के लिए, सभी युक्ति, हेतु दृष्टान्त, आगम उस भूल को निकालने के लिए प्रस्तुत किया जावेगा - विकार तो तेरी पर्याय में हुआ है, उसका उत्पादक भी तू ही है, इसलिए अभाव भी तू ही कर सकेगा आदि-आदि उपदेश से स्वाधीनदृष्टि उत्पन्न करा कर विकार के अभाव करने की ओर अग्रसर कराया जाता है, लेकिन जो व्यक्ति राग को परकृत मानकर, अभाव होना अशक्य मानकर अकर्मण्य (पुरुषार्थहीन) बन रहा हो, उसका परलक्ष्य करनेवाला तू स्वयं ही है, पर नहीं, स्वभाव का ज्ञान कराकर, विकार परलक्ष्य से ही उत्पन्न होता है, तथा विकार तेरा स्वभाव नहीं है, अतः स्वाधीनता पूर्वक परलक्ष्य छोड़ने का उपदेश दिया जाता है। अतः ऐसे जीवों को उस प्रकार से समझाना पड़ता है, जिससे उन जीवों की उस प्रकार की मिथ्या मान्यता
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