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________________ (सुखी होने का उपाय स्थापन कर लिया है। ऐसे जीव को आत्मा के ज्ञान में आनेवाले ज्ञेयों का परपना अनित्यपना आदि समझकर अपने आत्मा में पूर्ण संतोषवृत्ति धारण कर परज्ञेयों का आकर्षण भी छूट गया है। फलस्वरूप अपने उपयोग की परसन्मुखता भी ढीली होने लगती है। ऐसे उपायों को जिसने समझ लिया है, ऐसा आत्मार्थी जीव, उस देशना के द्वारा प्राप्त उपायों का जब अपने आत्मपरिणामों में प्रयोग करता है, तब उसका उपयोग पर से हटकर भेदज्ञान के माध्यम से अपने आत्मा के सन्मुख उत्तरोत्तर सूक्ष्म होता जाता है। ऐसी दशा में उस जीव के परिणामों में जो निर्मलता होती जाती है, उसे मिथ्यात्व मंद होता जाता है। परज्ञेयों के प्रति उत्साह - निवृत्ति होती जाती है। ऐसी आत्मपरिणामों की दशा को प्रायोग्यलब्धि के परिणाम कहे गये हैं। ऐसे उपायों की विस्तार से चर्चा आगे करेंगे। ५. करणलब्धि हैं। उपर्युक्त चारों चारों लब्धियों को प्राप्त जीव को ही करणलब्धि के परिणाम होते प्रायोग्यलब्धि के परिणामवाले जीव को भेदविज्ञान के माध्यम से विकल्पात्मक ज्ञान के द्वारा ही त्रिकाली निज आत्मद्रव्य में स्वपना, अहंपना हो जाता है। फलस्वरूप अपने परिणामों की स्व सन्मुखता बढ़ती जाती है। स्व में ही अपनी एकाग्रता में तन्मयता बढ़ती जाती है। उसके उपयोग में अनेक ज्ञेयों के आकार उपस्थित होते हुए भी उनके प्रति परपना आ जाने से उनकी ओर आकर्षित होने में अत्यन्त ढीलापन आता जाता है एवं अपने निज आत्मद्रव्य में स्वपना आ जाने से उसके प्रति आकर्षण बढ़ जाने के कारण उपयोग की उस ओर आने की उत्सुकता बढ़ती जाती है; और वे परिणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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