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________________ 89) (सुखी होने का उपाय कराया है। लेकिन श्रद्धा की अपेक्षा तो पुण्यभाव भी ज्ञानी को हेयरूप ही रहता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" सूत्र का तात्पर्य यह है कि ऊपर कहे गये अनेक कथनों के माध्यम से अपने त्रिकाली परमपारिणामिक रूप ज्ञायकभाव में "मैपना-अहंपना" का निर्णय कर के अपनी श्रद्धा में भी उस ही में अहंपना स्थापन करना चाहिये। साथ ही बाकी सभी द्रव्यभावों में सहज ही परपना आ जाता है। तथा उन सबके प्रति उपेक्षाभाव जाग्रत हो जाता है, यही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन प्राप्त जीव का उसी समय का ज्ञान स्व को स्व तरीके जानकर उसमें जमने-रमने योग्य एवं पर के प्रति उपेक्षा करने योग्य जानता है। उसी समय का चारित्र गुण भी, जिसको स्व जाना है, उसमें अपनी परिणति को एकमेक (लीन) करने की चेष्टा करता है। तथा जिनको हेय जाना है। उनके प्रति आकर्षण छोड़ता हुआ उपेक्षित रहता है। ऐसी स्थिति में अन्य ज्ञेय तो उपेक्षित हो ही जाते हैं। यह ही सहज स्वाभाविक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता है और यह ही सच्चा मोक्षमार्ग है। इसे आचार्य उमास्वामी ने "सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः रूप में कहा है। उपरोक्त स्थिति प्राप्त जीव की सहज ही संसार, शरीर, भोगों के प्रति आसक्ति घट जाती है। ज्ञान-वैराग्य की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है तथा चरणानुयोग कथित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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