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________________ सुखी होने का उपाय) (88 प्रति अपनत्वबुद्धि अहम्बुद्धि छोड़ देनी चाहिये। ऐसा स्वीकार कर एकमात्र स्वतत्त्व में अपनत्व मानकर समस्त ज्ञेयों के प्रति उपेक्षाभाव जाग्रत कर, हेय का त्याग, उपादेय के ग्रहण का पुरुषार्थ ही एकमात्र कर्तव्य है। इसी संबंध में विशेष जानने योग्य बात यह भी है कि आस्रव बंध तत्त्व के विशेष भेदरूप पुण्य तत्त्व एवं पाप तत्त्व मिलाकर नौ तत्त्व, नौ पदार्थ भी कहे गये है। अतः ये दोनों ही हेयतत्त्व के ही विशेषभेद होने से यथार्थ में तो छोड़ने योग्य ही हैं। लेकिन मोक्षमार्ग प्राप्त जीव (सम्यग्दृष्टि जीव) को पुण्यतत्त्व मोक्षमार्ग का सहचारी निमित्त देखकर कभी-कभी कहीं कहीं उसको कथंचित् उपादेय भी कहा गया है । तथापि यह पुण्य तत्त्व आम्रवरूपी हेयतत्त्व का ही विशेष होने से यथार्थतया तो मोक्षमार्गी को बाधक ही है। लेकिन यथापदवी वह मोक्षमार्ग के साथ रहते हुएँ भी मोक्षमार्ग का घात नहीं करता। इस अपेक्षा उस शुभभाव को भी हेय नहीं कहकर कथंचित् उपादेय भी कह दिया जाता है। इसीप्रकार अज्ञानी जीव को भी पुण्यभाव अर्थात् कषाय की मंदता का भाव मंद आकुलता उत्पादक होने से तथा सुगति का कारण होने से पापभाव की अपेक्षा पुण्यभाव को कथंचित उपादेय कहा जाता है। लेकिन पापभाव तो सर्वथा एवं सर्वदा ही कषाय की तीव्रता होने से अत्यन्त हेय ही है। यही कारण है कि आस्रव, बंध हेयतत्त्व होने पर भी मंदता तीव्रता के भेद देखकर, तथा कथंचित् किसी जीव को किसी अपेक्षा कभी-कभी इस हेयतत्त्व में भी उपादेयता का ज्ञान कराने के लिये ही पुण्य और पाप दो तत्त्व और बढ़ाकर, इन दोनों का समावेश कर, नव तत्त्व के रूप में उनका ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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