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________________ सुखी होने का उपाय) द्रव्यकर्म, भावकर्म की मुख्यता से सात तत्त्वों का ज्ञान जिनवाणी में व्यवहार की मुख्यता से, निमित्तप्रधान कथन में सात तत्त्वों का स्वरूप इसप्रकार भी बताया गया है कि जीवतत्त्व तो यह जीव स्वयं है ही । अजीवतत्त्व में बाकी आ जाते हैं। आस्रवतत्त्व में द्रव्यकर्मो का करने के लिये आत्मा में आना बताया के पांचों द्रव्य आत्मा से संबंध गया है। (84 है। उसीप्रकार उन द्रव्यकर्मों का आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह रूप से बंध जाना, उसको बंधतत्त्व कहा गया । उन कर्मों का आत्मा के साथ संबंध होना रुक जाना, संवर तत्त्वं कहा है। एवं बंधे हुए कर्मों का आत्मा से संबंध छूटना, निर्जरा तत्त्व कहा गया है। तथा सभी प्रकार के द्रव्य कर्मों का आत्मा से संबंध पूर्णरूप से छूट जाना ही मोक्षतत्त्व है। इसप्रकार के कथन व्यवहारप्रधान कथन में आते हैं। अतः समझना पड़ेगा कि दोनों कथनों का में क्या संबंध है। आपस उपरोक्त दोनों प्रकार की परिभाषाएं परस्पर विरोधी-सी दीखती हुई भी, किंचित् भी विरोधी नहीं हैं। दोनों ही परिभाषाएं एक ही उद्देश्य को सिद्ध करती है। जैसे पहली परिभाषा में आत्मा के अन्दर विकारीभावों की उत्पत्ति को आस्रवतत्त्व कहा है और दूसरी परिभाषा में आत्मा जब विकारी भाव उत्पन्न करता है, तब उसका निमित्त करके कर्म परमाणुओं का आत्मा के साथ संबंध करने के लिये आना होता है, उसको आस्रवतत्त्व कहा गया है। पहली परिभाषा में आत्मा के विकारीभावों की उत्पत्ति नहीं हुई उसको संवर तत्त्व कहा है। और दूसरी परिभाषा में जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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