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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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कि जो द्रव्य स्वयं कार्यरूप परिणमा है, वह द्रव्य ही वास्तविक उस कार्य का कर्ता है, अन्य द्रव्य तो उस कार्य का कर्ता हो ही नहीं सकता? लेकिन उस समय उपादान का कार्य भी उस निमित्त जैसा ही दिखता है इस कारण निमित्त को कर्ता कहना तो मात्र उपचार ही है, लेकिन फिर भी उसको निमित्त कर्ता कहा गया है। वास्तव में उस कार्य का स्वामी तो वह उपादान ही है।
जीवद्रव्य में निमित्त-नैमित्तिकपना प्रश्न :- उपरोक्त कथन से जीवद्रव्य के अतिरिक्त पाँचों द्रव्यों के स्वतंत्र परिणमन, उनके आपस का संबंध एवं निमित्त-नैमित्तिक संबंध आदि समझ में आ सकते हैं, लेकिन जीवद्रव्य तो जानने वाला है यह तो किसी के भी भले-बुरे आदि कार्यों में निमित्त बन सकता है ? हमारा प्रयोजन तो हमारी भूल जानकर भूल निकालना है, अत: इस विषय की भी स्पषटता आवश्यक है।
उत्तर :- जीव भी छह द्रव्यों में से ही तो एक द्रव्य है जो अन्य पाँच द्रव्यों का स्वभाव है वह ही जीव का स्वभाव है एवं हो सकता है। सभी द्रव्य जिसप्रकार से “उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तंसत्” हैं, उसीप्रकार से जीव भी निरन्तर, अनवरतरूप से, ध्रुव रहते हुए भी पर्यायें पलटता ही रहता है। मात्र अन्तर है तो इतना ही है कि अन्य द्रव्यों में, जिसप्रकार अपने-अपने विशेष गुण जैसे पुद्गल में स्पर्श, रस, गन्धादिक हैं धर्म में गति परिणमन में निमित्तत्व, अधर्म में स्थिति परिणमन में निमित्तत्व आदि हैं उसी प्रकार जीव में भी ज्ञान अर्थात् जाननपना एक विशेषगुण है।
अन्य सभी सामान्य गुणों के परिणमन सभी द्रव्यों में समान होते हैं, अत: सभी कार्यों में समानता है। विशेष गुणों के संबंध में विचार करें तो जब हर एक द्रव्यों के विशेष गुण भी अपनी-अपनी क्वालिटी छोड़कर अन्य किसी रूप भी परिणमन नहीं करते, तब आत्मा का ज्ञानगुण अपनी
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