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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] जिनवाणी में स्पष्ट निषेध है। आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार कलश नं. ५१ से ५४ तक इस बात का स्पष्टीकरण निम्नप्रकार से किया है :
५१. जो परिणमित होता है वह कर्ता है, जो परिणाम होता है वह कर्म है और जो परिणति है सो क्रिया है, यह तीनों वस्तुरूप से अभिन्न
५२. वस्तु एक ही सदा परिणमित होती है, एक के ही सदा परिणाम होते हैं अर्थात् एक अवस्था से अन्य अवस्था एक की ही होती है और एक की ही परिणति क्रिया होती है, क्योंकि अनेक रूप होने पर भी वस्तु एक ही है, भेद नहीं है।
५३. दो द्रव्य एक होकर परिणमित नहीं होते, दो द्रव्यों का एक परिणाम नहीं होता और दो द्रव्यों की एक परिणति क्रिया नहीं होती, क्योंकि जो अनेक द्रव्य हैं सो सदा अनेक ही हैं वे बदल कर एक नहीं हो जाते।
५४. एक द्रव्य के दो कर्ता नहीं होते, और एक द्रव्य के दो कर्म नहीं होते तथा एक द्रव्य की दो क्रियाएँ नहीं होती, क्योंकि एक द्रव्य अनेक रूप नहीं होता।
जिनागम के उपरोक्त कथन से भी यह स्पष्ट है कि हर एक द्रव्य अपने-आप में ही रहकर मात्र अपनी स्वयं की पर्याय को ही कर सकता हैं, अन्य किसी द्रव्य में कुछ भी किंचित्मात्र भी नहीं कर सकता।
उपरोक्त सिद्धान्त जिसकी समझ में आकर श्रद्धा में नि:शंकता उत्पन्न हो जावे कि कोई भी द्रव्य किसी भी अन्य द्रव्य में कुछ भी फेरफार करने की सामर्थ्य नहीं रखता, मैं भी तो एक जीवद्रव्य हूँ, द्रव्यमात्र की जो सामर्थ्य है, मात्र वह ही सामर्थ्य तो मेरी हो सकती है, विशेष प्रकार अथवा अन्य प्रकार कैसे और क्यों हो सकती है आदि-आदि। इसका प्रमाण साक्षात् अरिहंत भगवान की आत्मा है। भगवान आत्मा को जानने
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