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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
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क्या स्थिति है ? जबकि जीव ही मूलत: प्रयोजनभूत पदार्थ है अत: उसके बाबत समझना अत्यन्त आवश्यक है ।
उत्तर :- जब सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप ही परिणमन कर रहे हैं तो जीवद्रव्य भी तो स्वयं एक वस्तु है । अतः वस्तु व्यवस्था के अनुसार वह भी अपनी-अपनी पर्यायों के अतिरिक्त क्या, क्यों और कैसे कुछ भी कर सकता है ? अतः जीव भी निरन्तर अपनी पर्यायों को ही निर्बाधरूप से करता रहता है। जीव का स्वभाव ही जानना है इसलिए इस आत्मा की जाननक्रिया कभी रुकती नहीं चाहे निगोद में चला जावे अथवा स्वर्ग में उत्पन्न हो, अथवा मनुष्य, तिर्यंच, सिद्ध भी हो जावे तो भी जाननक्रिया का कहीं भी अभाव हो सकता नहीं तथा होता हुआ दिखता भी नहीं ।
जो भी क्रिया अनादि अनंत जीव से भिन्न न हो सके वह तो जीव की स्वाभाविक क्रिया है और जो उत्पन्न होकर विनष्ट हो जावे उसे जीव की स्वाभाविक क्रिया कैसे कही जा सकती है ? अर्थात् नहीं कही जा सकती । इससे सिद्ध होता है कि अन्य द्रव्यों की तरह जीव भी निरन्तर अपनी स्वाभाविक क्रिया ही कर सकता है तथा करता रहता है । उस जाननक्रिया रूप स्वाभाविक क्रिया का एक क्षणमात्र भी आत्मा यानी जीव से कभी वियोग नहीं होता, क्योंकि वस्तु की व्यवस्था ही ऐसी है कि जो उसका स्वभाव है उस रूप निरन्तर परिणमन करती ही रहे । आचार्य उमास्वामी महाराज ने कहा भी है- “ उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य युक्तं सत् ” एवं “सत् द्रव्य लक्षणम्” आदि-आदि अतः जीवद्रव्य निरन्तर जाननक्रिया करता ही रहता है और अपनी स्वाभाविक क्रिया के द्वारा जिन-जिन वस्तुओं को जानता है वे उस ज्ञान के ज्ञेय अथवा ज्ञान के निमित्त कहे जाते हैं । परवस्तुओं के साथ आत्मा का अगर कोई संबंध कहा जावे तो परम पवित्र एकमात्र ज्ञेय-ज्ञायक संबंध ही है। अन्य कोई प्रकार का किंचितमात्र भी संबंध नहीं है । यही सारे विश्व की व्यवस्था है। विश्व के सभी द्रव्य
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