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________________ अपनी बात मैंने इस लघु पुस्तिका का प्रकाशन कई वर्षों पूर्व सन् १९८७ में जैनपथप्रदर्शक में एक लेखमाला के रूप में प्रारम्भ किया था, मुझे अनुमान भी नहीं था कि यह लेखमाला पुस्तिका का रूप ग्रहण कर लेगी,मैंने इसको लेख के रूप में विषय को संक्षिप्त रूप से लिखने से प्रारम्भ किया था लेकिन कुछ पाठकों ने मुझे इसके विशेष स्पष्टीकरणपूर्वक विस्तार करने के लिये प्रोत्साहित किया, फलतः इस लेखमाला ने एक पुस्तिका का स्थान प्राप्त कर लिया। यही कारण है कि प्रकाशित लेखमाला से इस पुस्तिका का विषय बहुत कुछ परिवर्तित भी हो गया है। कुछ वर्षों पूर्व मैंने एक लघु पुस्तिका ‘पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक एवं उसकी ग्यारह प्रतिमाएँ' लिखी थी और वह सन् १९७२ से पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित होकर ५००० की संख्या में समाज के पास पहुँच ही चुकी है, उसके कुछ समय पश्चात् ही 'णमो लोए सव्वसाहूणं' नाम की दूसरी लघु पुस्तिका का भी सन् १९८६ में पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित होकर अभी तक ८२०० की संख्या में समाज को उपलब्ध हो चुकी है । उसी समय से मेरे मन में यह भावना थी कि पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक एवं षष्ठम् , सप्तम् गुणस्थान स्थित साधु परमेष्ठी की अन्तर्बाह्य दशा बताने वाली लघु पुस्तिका तो प्रकाशित हो गई लेकिन मिथ्यादृष्टि जीव को सम्यक्त्व प्राप्त करने की पात्रता एवं विधि बतलाने वाली पुस्तिका भी तैयार होनी चाहिए, जिसके द्वारा मिथ्यात्व का अभाव करके अत्यन्त दुर्लभातिदुर्लभ चतुर्थ गुणस्थान की अवस्था प्राप्त करने का सुगम उपाय आत्मार्थी जीव को प्राप्त हो सके। मन के अन्दर छुपी इस भावना से ही इस लेखमाला ने इस पुस्तिका का रूप धारण किया, अतः मैंने मेरी बुद्धिक्षमता और गुरुउपदेश के माध्यम से तथा जिनवाणी की कृपा से उसके अध्ययन से जो कुछ भी प्राप्त किया है उसके आधार पर तथा अपने स्वयं की बुद्धिरूपी कसौटी पर परखकर यथार्थ निर्णय में आया और सम्यक् अनुमान ज्ञान के द्वारा अनुभव में लाकर परीक्षा कर जो भी यथार्थ निर्णय प्राप्त हुआ, इस पुस्तिका के माध्यम से आत्मार्थी बन्धुओं को समर्पण करने का प्रयास किया है, अगर इसमें कहीं कोई कमी रह गई अथवा भूल हो गई हो तो वह मेरी बुद्धि का दोष मानकर विशेष अनुभवी मुमुक्षु बन्धु क्षमा करें एवं अपने अनुभव से परखकर आगम की साक्षीपूर्वक उचित सुधार लेवें वर्तमान काल में तो आगम ही आधार है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस पुस्तिका में प्रकाशित मार्ग ही संसार में भटकते प्राणी को संसार भ्रमण से छुटकारा प्राप्त कराने का यथार्थ मार्ग है । मैं स्वयं अनादि काल से भटकता हुआ दिग्भ्रमित प्राणी था, यथार्थ मार्ग प्राप्त करने के लिए दर-दर की ठोकरें खाता फिरता था, सबही अपने चिन्तन को ही सच्चा मार्ग कहते थे लेकिन किसी के पास रंचमात्र भी शान्ति प्राप्त कराने का मार्ग नहीं था। ऐसी कठिन परिस्थितियों में मेरे सद्भाग्य का उदय हुआ और न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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