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... [सुखी होने का उपाय ज्ञान का स्वभाव ही स्व के साथ पर को भी जानना है
उपरोक्त चर्चा से एक प्रश्न खड़ा होता है कि आत्मा एक ही साथ स्व और पर दोनों का ज्ञायक कैसे हो सकता है? क्योंकि ज्ञान की जानने की प्रक्रिया को समझे बिना श्रद्धान में नि:शंकता कैसे आ सकती हैं उसका समाधन निम्न प्रकार है :
___ गम्भीरतया विचार करने पर हम संसारी, अज्ञानी, अल्पज्ञ, छद्मस्थ जीवों को भी यह स्पष्टतया ख्याल में आ सकता है कि हमारा अल्पज्ञान भी सामान्यतया कभी भी अकेले पर को जानता हो- ऐसा नहीं है, प्रथम मुझे भी मेरा स्वयं का अस्तित्व ख्याल में आकर ही पर के अस्तित्व की प्रसिद्धि ज्ञान में आती है। जैसे जब-जब भी क्रोध की उत्पत्ति होती है तो मेरी भाषा इसप्रकार निकलती है कि “मुझे क्रोध आ रहा है", इस पर से विचार करे कि मेरे ज्ञान की उस समय की पर्याय में जब क्रोध की जानकारी उपस्थित हुई, उसके पहले ही अपने अस्तित्व की जानकारी भी प्रस्तुत हो गई या नहीं? क्योंकि यह भाषा ही कि “मुझे क्रोध आ गया" इस बात को सिद्ध करती है कि क्रोध किसको आया, तो ज्ञान जान लेता है कि मुझको आया, अत: ज्ञान ने क्रोध के साथ-साथ उस समय ही अपने अस्तित्व का ज्ञान भी कर तो लिया। इस ही प्रकार किसी भी विषय को लेकर विचार करें तो हमको प्रतीति में स्पष्ट आवेगा कि कभी भी किसी भी प्रसंग में मेरा ज्ञान पर के ज्ञान के साथ-साथ अव्यक्तपने अपना ज्ञान भी करता ही है। ऐसा एक भी दृष्टान्त उपस्थित नहीं होगा, जिसमें मेरे को मेरे अस्तित्व का ज्ञान हुए बिना, अकेले पर का ही ज्ञान आता हो, इससे निश्चित होता है कि ज्ञान का स्वभाव ही ऐसा है कि जब-जब भी जानने की प्रक्रिया होती है, ज्ञान स्व और पर को एक साथ जानता हुआ ही उत्पन्न होता है, क्योंकि यह उस ज्ञानगुण का स्वभाव ही है।
इस ही बात को समयसार गाथा १७-१८ की टीका में आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव ने भी कहा है कि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा
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