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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] अनेक पुद्गल परमाणुओं में से किसी एक भी परमाणु का मैं क्या कर सकता हूँ? क्योंकि उनका मेरे में अत्यन्ताभाव है। मेरी मर्यादा अगर कुछ भी करने की है, तो भी मात्र मेरी वर्तमान पर्याय तक ही सीमित है। भूतकाल में यह पर्याय थी ही नहीं, क्योंकि प्रागभाव के कारण वर्तमान पर्याय का अस्तित्व मात्र वर्तमान में ही हैं। भविष्यकाल में भी इस पर्याय का अस्तित्व ही नहीं मिलेगा, क्योंकि पर्याय का जीवनकाल ही मात्र एक समय का है। अत: इसप्रकार सिद्ध है कि आत्मा तो अकर्तास्वभावी ही है। मेरे द्रव्य का परद्रव्य में अत्यन्ताभाव होने से, तथा अपनी भूत-भविष्य की पर्यायों का वर्तमान में अभाव होने से, यह जीव किसी प्रकार और कैसे व किस समय, किसी भी द्रव्य एवं पर्याय में क्या कुछ कर सकेगा? इससे स्पष्टतया निर्विवाद सिद्ध है कि “मैं तो आत्मा अकर्तास्वभावी हूँ" ऐसा अंतरंग से स्वीकार होने पर, इस जीव की, परद्रव्य में फेर-फार कर सकता हूँ ऐसी अनादिकालीन चली आ रही मिथ्या मान्यता (अभिप्राय छूट) नष्ट होकर, पर के प्रति स्वामित्व एवं कर्तृत्व का अभिप्राय छूट जाता है एवं तत्संबंधी अनंत अभिमान छूटकर तथा पर में कुछ करने-धरने की मान्यता छूट जाती है, तथा पर के प्रति रहने वाला आकर्षण घट जाने से उपयोग, जो आत्मा को छोड़कर पर सन्मुख रहकर बाहर ही बाहर घूमता रहता था, उसका पर के प्रति आकर्षण घट जाता है और स्वसन्तुख होने का महान पुरुषार्थ प्रगट होता है।
परसन्मुखता के कारण होने वाली आकुलता क्रम-क्रम से छूटती जाती है और आत्मिक शांति प्रगट होती जाती है। यही सच्चा मार्ग है, यही सच्चा उपाय है।
इसप्रकार उपरोक्त चर्चा के माध्यम से हमको यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तु का स्वभाव क्या है; अब यह प्रश्न उपस्थित होना स्वाभाविक है कि 'वस्तु के स्वभाव को धर्म क्यों कहा गया है?' अत: हमारे आत्महित के लिए उस पर चर्चा की जाती है।।
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