________________
[ ४५
वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था । मान्यता को छोड़कर, वस्तुस्वभाव को पहिचानकर, यह स्वीकार कर ले कि “मेरी मर्यादा तो मात्र मेरी स्वयं की पर्याय तक ही है, अन्य द्रव्य की पर्याय में कुछ भी कर सकने की मेरे में ताकत ही नहीं है" परद्रव्य अपने परिणमन का स्वयं स्वामी होने से चाहे जैसे परिणमन करे, मैं उसमें कुछ भी नहीं कर सकता। ऐसी यथार्थ-मान्यता के द्वारा अपने आत्मा में अनन्त आकुलता का नाश होकर शांति वर्तने लगती है। उपयोग की बाहर के ओर की दौड़ निर्बल होने लगती है। अत: उपरोक्त विपरीत मान्यता यानी श्रद्धा को बदलने का सर्वोत्कृष्ट लाभ यही है।
इस ही स्वतंत्र वस्तु व्यवस्था को चार अभावों के माध्यम से आगम में विशेष स्पष्ट एवं सिद्ध किया गया है।
चार अभाव के माध्यम से स्वतंत्रता एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ के अस्तित्व के अभाव को, अभाव कहते हैं । वे अभाव चार प्रकार के आगम में कहे गये हैं। प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव । इसप्रकार इन चार अभावों के माध्यम से वस्तु की एवं उसकी हर एक पर्याय की स्वतंत्रता सिद्ध की गई है।
प्रागभाव :- वर्तमान पर्याय का उसी द्रव्य की पूर्व किसी भी पर्याय में अभाव ही है अर्थात् जो पर्याय वर्तमान में उत्पन्न हुई है उसका अस्तित्व उसी द्रव्य के मात्र वर्तमान में ही है। उससे पहले उस द्रव्य में और उसकी किसी भी पर्याय में अथवा किसी अन्य द्रव्य में किसी भी समय नहीं था। यह सब वर्तमान पर्याय के अस्तित्व की स्वतंत्रता सिद्ध करता है।
प्रध्वंसाभाव :- वर्तमान पर्याय का उसी द्रव्य की आगे होने वाली किसी भी पर्याय में अभाव ही रहेगा, अर्थात् जो पर्याय वर्तमान में उत्पन्न हुई है, उसका अस्तित्व उसी द्रव्य के मात्र वर्तमान में ही है। वर्तमान के बाद आगे भविष्य में अपने द्रव्य में अथवा किसी भी पर्याय में अथवा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org