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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
[ ३९ अर्थ :- यहाँ, “समय” शब्द से सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार “समयते” अर्थात् एकीभाव से अपने गुण-पर्यायों को प्राप्त होकर जो परिणमन करता है सो “समय” है । इसलिये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, जीवद्रव्यस्वरूप लोक में सर्वत्र जो कुछ जितने पदार्थ हैं, वे सब निश्चय से वास्तव में एकत्वनिश्चय को प्राप्त होने से ही सुन्दरता को पाते हैं। क्योंकि अन्य प्रकार से उनमें संकर, व्यतिकर आदि सभी दोष आ जायेंगे। वे सब पदार्थ अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहने वाले अनन्त धर्मों के चक्र समूह का चुम्बन करते हैं-स्पर्श करते हैं, तथापि वे परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते। अत्यन्त निकट एकक्षेत्रावगाहरूप से तिष्ठ रहे हैं, तथापि से सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते। पररूप परिणमन न करने से अपनी अनन्त व्यक्तिता ( प्रगटता ) नष्ट नहीं होती। इसलिए जो टंकोत्कीर्ण की भाँति शाश्वत स्थित रहते हैं और समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्य दोनों की हेतुता ( निमित्त भाव) से वे सदा विश्व का उपकार करते हैं-टिकाये रखते हैं।"
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हर एक द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्यायों में ही निरन्तर परिणमन करते रहते हैं, लेकिन उन्हीं आकाश के प्रदेशों में स्थित अन्य द्रव्य के गुण-पर्यायों में किंचित्मात्र कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं रखते यही कारण है कि अनन्त द्रव्यों का अपना-अपना अस्तित्व निर्वाधतया अनादि अनंत सत् रूप से कायम बना रहता है।
सारांश यह निकला कि मेरा जीवद्रव्य, मेरे ही शरीर के पुद्गल परमाणुरूप द्रव्यों का, अत्यन्त नजदीकी होते हुए भी कुछ भी नहीं कर सकता। अनुभव में भी आता है कि शरीर में बुखार आने पर आत्मा अन्दर में अनेक विचार उस बुखार को हटाने का करता रहता है, लेकिन उन विचारों का अंशमात्र भी उन शरीराकार पुद्गल परमाणुओं पर कोई
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