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________________ २४] [ सुखी होने का उपाय कारण वह उस आकुलता को छोड़ने का अथवा नहीं करने का प्रयास कर ही कैसे सकता है ? अर्थात् कभी नहीं कर सकता । सारांश यह निकला कि आत्मा स्वयं दुःख का उत्पादक है ही नहीं, वह दुःख का स्वयं उत्पादन करेगा ही क्यों ? दुःख उसको चाहिए ही नहीं, लेकिन इसकी उपरोक्त उल्टी विपरीत मान्यता, विश्वास, श्रद्धा ही उपरोक्त समस्त आकुलता की उत्पादक है । मेरा सुख परवस्तुओं अर्थात् बाहर के संयोगों में है- ऐसी मान्यता ही इसको अनेक प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न करके तथा उनकी पूर्ति करने संबंधी अनेक प्रकार की आकुलता खड़ी रहती है। इसलिये दुःख का उत्पादक आत्मा नहीं है वरन् उपरोक्त उल्टी मान्यता से उत्पन्न हुई इच्छाएँ ही, दुःख की उत्पादक हैं I तात्पर्य यह है कि अगर आत्मा को सुखी बने रहना हो तो उपरोक्त मिथ्या मान्यता को बदलकर, इच्छाएँ उत्पन्न ही नहीं होने देवें अर्थात् वह दुःख आत्मा में पैदा ही न होने पावे तो आत्मा सुखी है ही । अत: उसे सुख का उत्पादन नहीं करना है, इसके विपरीत दुःख का उत्पादन जो होता था वह बन्द हो जाने से आत्मा अनन्तकाल तक पूर्णसुखी बना रहेगा, ऐसी मान्यता उत्पन्न करना है । उपरोक्त मान्यता को बदलने का उपाय क्या ? उपरोक्त प्रश्न तो बहुत छोटा सा है, लेकिन इसका समाधान बहुत विस्तारपूर्वक गम्भीर गवेषणा मांगता है, अनादिकाल से यह जीव जिस मिथ्यामान्यता उल्टी मान्यता, उल्टा विश्वास, उल्टी श्रद्धा होने से निरन्तर इन्छाऍ उत्पन्न करके, उनकी पूर्ति के लिए अनेक प्रकार से राग-द्वेष अर्थात् क्रोधादि कषायें, पाँच पाप आदि भाव करता रहता है, उस ही के फलस्वरूप कर्मबंध करता है, उसके फल में परिभ्रमण करता रहता है । उस सबका कारण अर्थात् संसारभ्रमण का कारण उल्टी मान्यता है । उस मिथ्यामान्यता को दूर करने के लिए कितनी एकाग्रता, कितनी गंभीरता, कितनी सहिष्णुता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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