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[सुखी होने का उपाय आत्मा दुःख उत्पन्न ही क्यों करता है ? यहाँ सहज ही प्रश्न खड़ा होता है कि जब आत्मा सुख स्वभावी ही है, उसका निरन्तर सुखमय रहने का स्वभाव ही है तो सुख में से दुःख उत्पन्न ही क्यों होता है और आत्मा दुःख का उत्पादन ही क्यों करता है?
इस प्रश्न का हल करने के लिए पहले यह समझना चाहिए कि दुःख पैदा कैसे होता है? जैसे एक तालाब जो स्वच्छ जल से लबालब भरा है उसमें एक पत्थर का टुकड़ा फेंका जाए तो वह तालाब का पानी जो शांत पड़ा था वह अशान्त हो जाता है। उसीप्रकार आत्मा तो निराकुल स्वभावी आकुलता रहित शांत ही पड़ा है, उसमें जिस समय भी कोई इच्छारूपी पत्थर का टुकड़ा फेंका कि शांतस्वभावी आत्मा में आकुलता की उत्पत्ति हो जाती है। अत: यह आत्मा अपनी उल्टी मान्यता के कारण स्वयं ही दुःखी होता है।
प्रश्न का दूसरा चरण है कि आत्मा दुःख का उत्पादन ही क्यों करता है ? यह बात बहुत गंभीरतापूर्वक विचारने योग्य है, क्योंकि जो आत्मा को नहीं चाहिए और उत्पादन हो जाने के बाद जिसे मिटाने का प्रयास करना पड़े उसका उत्पादन ही आत्मा क्यों करता है ?
सत्य बात तो यही है कि आत्मा को ऐसी गंभीर भूल नहीं करनी चाहिए और उसी में आत्मा का हित भी है। लेकिन अनादिकाल से इसको कभी यह विश्वास ही उत्पन्न नहीं हुआ कि मैं स्वयं सुखस्वभावी हूँ, मेरे को मेरा सुख कहीं बाहर से लाना नहीं पड़ता, इस विश्वास के माध्यम से अगर मैं सुख प्राप्त करने की इच्छा ही उत्पन्न नहीं होने दूं तो दुःख का उत्पादन भी नहीं होगा। उससे उल्टा यह विश्वास अनादि से करता चला आ रहा है कि मैं स्वयं सुखस्वभावी नहीं हूँ, मुझे सुख चाहिए और मेरा सुख बाहर के संयोगों में हैं, उनमें से ही प्राप्त किया जा सकता है। अत: अगर सुख प्राप्त करना है तो मुझे बाहर के अनुकूल संयोग इकट्ठे करके उनमें से सुख प्राप्त करना चाहिए। उस सुख को प्राप्त करने
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