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वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ]
[२१ सुख निकाल लेना चाहिए। अत: विचार करें-ऐसा संभव हो सकता है क्या ?
इस दृष्टान्त से यह निष्कर्ष निकलता है कि उन वस्तुओं में सुख होता तो उनके ज्यादा सेवन से ज्यादा सुख निकलना चाहिए था, लेकिन ऐसा होता नहीं है। यथार्थ स्थिति यह है कि पहिले जिस चीज को प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हुयी थी, जब तक वह चीज प्राप्त नहीं होती आकुलित अर्थात् दुखी होता रहता है, और जब वह इच्छा किसी भी प्रकार से वस्तु को प्राप्त करके या बिना प्राप्त करे भी शांत हो जाती है तो वह आकुलता घट जाने के कारण, वह प्राणी शांति का आभास करने लगता है, और उसी को सुख मानने लगता है।
यथार्थतया इच्छा का उत्पन्न होना ही दुःख है। और किसी भी प्रकार से उस इच्छा की कमी होने पर अपने-आपको सुखी मानने लगता है। अत: निर्णय व अनुभव में आता है कि इच्छा तो आत्मा में ही उत्पन्न होती है और उस आकुलता का अभाव या कमी भी आत्मा में ही होती है। अत: सिद्ध होता है कि आत्मा में उत्पन्न होनेवाला दुःख वही है जो कि इच्छा उत्पन्न होने पर उत्पन्न हुआ है एवं अपने अनुभव में आता है। वह आत्मा में ही है व उस आकुलतारूपी दुख की कमी भी आत्मा में में ही होती है तथा आत्मा उस समय अपने को सुखी भी मानने लगता है। जब किसी प्रकार गुरु उपदेश अथवा जिनवाणी के माध्यम से यथार्थ स्थिति समझे कि मेरा सुख बाहर की वस्तु में से नहीं आ सकता है, अत: उनके प्राप्त करने संबंधी आकुलता करना निष्फल है, कर्म का उदय मानकर संतोषवृत्ति धारण करने में ही शांति प्राप्त होती है, यही सुखी होने का उपाय है। ऐसा विश्वास जागृत होने पर, आत्मा अगर इच्छाओं को उत्पन्न ही नहीं होने देवे अर्थात् जिसको इच्छा उत्पन्न ही न हो, वही परम सुखी है, वही परमेश्वर है तथा वह सुख भी आत्मा को आत्मा में ही होता है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा का सुख आत्मा में ही होता है, आत्मा का सुख अन्य कहीं भी नहीं होता तथा अन्य कहीं से भी नहीं आता।
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