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विषय प्रवेश यह तो सार्वभौमिक निर्विवाद सत्य है कि प्राणीमात्र सुख चाहता है। चाहे वह एक इन्द्रिय वनस्पति हो अथवा पाँच इन्द्रियों वाला मनुष्य तिर्यंच, देव आदि कोई भी हो, सब ही रात्रि-दिवस जो कुछ भी करते हैं, वह सब सुख प्राप्त करने के लिए ही करते हैं, अन्य कुछ भी किंचितमात्र प्रयोजन नहीं है। सोना अथवा जागना, खाना अथवा नहीं खाना, पीना अथवा नहीं पीना, सिनेमा देखना शराब पीना आदि अच्छे अथवा बुरे-सभी काम सुख के लिए करता है। इसलिए यह तो निर्विवाद है कि प्राणीमात्र को सुख चाहिए, कहा भी है :
“जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुःखतें भयवन्त।"
अतः सुख प्राप्त करने के उपाय के संबंध में विचार विश्लेषण करते हैं। यह विचार करने से भी पहले सुख की व्याख्या को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए।
इच्छाओं की पूर्ति को ही जगत् सुख मानता है।
जगत मानता है कि जो इच्छा उत्पन्न हो उसकी पूर्ति हो जावे, वह ही सुख है और इच्छा होने पर उसकी पूर्ति नहीं होना दुःख है। इसलिये जिसप्रकार की भी इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं, उनकी पूर्ति के साधनों को इकट्ठा करने के लिये ही वह निरन्तर प्रयास करता रहता है; तथा जो इच्छा पूर्ति में बाधक हों उन-उन कारणों को मिटाना-दूर करना चाहता है। उनकी प्राप्ति अथवा दूर करने के लिए चाहे कितने ही जीवों का घात करना पड़े, कष्ट भी पहुँचाना पड़े, अन्याय रूप प्रवृत्ति भी करना पड़े तो भी अपने प्रयासों की पूर्ति में रत जीव को पाँच पाप – हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, सहजरूप से हुए बिना रहते ही नहीं हैं। अर्थात् अपने प्रयासों को सफल करने के लिये पाँच पापोंका भी उपयोग करता ही रहता है। उन प्रयासों के बारे में गहराई से विचार करें तो इस शरीर से
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