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________________ १०२] [ सुखी होने का उपाय तब तत्वों की यथावत् प्रतीति आवेगी, सो इसका तो कर्तव्य तत्त्वनिर्णय का अभ्यास ही है। इसी से दर्शनमोह का उपशम तो स्वयमेव होता है, उसमें जीव का कर्तव्य कुछ नहीं है।" उपरोक्त विषयों पर विचार करने के पश्चात भी जो जीव तत्व निर्णय रूप अभ्यास करने में उपरोक्त पाँचों समवायों में से किसी एक समवाय, कर्म अथवा अन्य निमित्त आदि का बहाना लेकर तत्व निर्णय में उपयोग नहीं लगाता, उसका भी पुरुषार्थ जाग्रत करने के लिए सचेत करते हुए उक्त ग्रंथ के पृष्ठ ३११ पर कहते हैं कि :_ “और तत्त्व निर्णय करने में किसी कर्म का दोष है नहीं , तेरा ही दोष है, परन्तु तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नहीं है। तुझे विषय कषाय रूप ही रहना है, इसलिये झूठ बोलता है। मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी युक्ति किसलिए बनाए? सांसारिक कार्यों में अपने पुरुषार्थ से सिद्धि न होती जाने, तथापि पुरुषार्थ से उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा, इसलिए जानते हैं कि मोक्ष को देखा-देखी उत्कृष्ट कहता है उसका स्वरूप पहिचानकर उसे हितरूप नहीं जानता। हित जानकर उसका उद्यम बनें सो न करे यह असंभव है।" । उपरोक्त कथन सुनकर भी जो जीव तत्त्व निर्णय में पुरुषार्थ नहीं लगाते उनके लिये उक्त ग्रंथ के पृष्ठ ३१२ पर ही कहा है कि : __ “इसलिये जो विचार शक्ति सहित हो और जिसके रागादिक मंद हो-वह जीव पुरुषार्थ से उपदेशादिक के निमित्त से तत्वनिर्णयादि में उपयोग लगाए तो उसका उपयोग वहाँ लगे और तब उसका भला हो। यदि इस अवसर में भी तत्त्व निर्णय करने का पुरुषार्थ न करे, प्रमाद से काल गंवाये-या तो मंद रागादि सहित विषय कषायों के कार्यों में ही प्रवर्ते, या व्यवहार धर्म कार्यों में प्रवर्ते तब अवसर तो चला जायेगा और संसार में ही भ्रमण होगा । उक्त तत्त्व निर्णय की महिमा बताते हुए पण्डित प्रवर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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