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________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] [ १०१ पुरुषार्थ का शब्दार्थ भी है, "पुरुष" = आत्मा और “अर्थ” - प्रयोजन, अर्थात् आत्मा का प्रयोजन वही आत्मा का पुरुषार्थ है । आत्मा का प्रयोजन तो एकमात्र पूर्ण दशा प्राप्त करने का अर्थात् सिद्ध दशा प्राप्त करने का है । उनका आत्मा तो एकमात्र ज्ञायक और अकर्ता स्वभावी ही है, और यही एकमात्र वीतरागता का उत्पादक है। उनका आत्मा तो अपने आपको जाननेवाला ज्ञायक रहते हुए भी, पर को जानते तो हैं लेकिन अपने अकर्तापन के स्वभाव के कारण मात्र जानने के स्वभाव वाले हैं । इसलिये ऐसी सिद्ध दशा प्राप्त करने का मार्ग भी, उसका पोषक ही तो हो सकता है । राग को उत्पन्न करने वाला मार्ग नहीं हो सकता । अतः प्रमाणित होता है कि आत्मा का ज्ञायक अकर्ता मानकर, वैसा बनने का पुरुषार्थ ही आत्मा का यथार्थ पुरुषार्थ है । - इसप्रकार कार्य की सम्पन्नता में, पाँचों समवायों की स्वतंत्रता पूर्वक संपन्न हुई समग्रता का स्वीकार करते हुए आत्मा को करने योग्य कार्य कार्य तो, एकमात्र ज्ञायक- अकर्ता समझने एवं परिणमन करने का पुरुषार्थ ही है। ऐसा मानकर मोक्षमार्ग प्राप्त करने का यथार्थ प्रयत्न करना चाहिये, यही एकमात्र सम्पूर्ण द्वादशांग का सार है 1 मोक्षमार्ग प्राप्त करने का पुरुषार्थ तत्त्व निर्णय प्रश्न उपस्थित होता है कि मोक्षमार्ग प्राप्त करने का पुरुषार्थ क्या है ? इस विषय की स्पष्टता के लिये जिज्ञासु जीवों को मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ में नौवें अधिकार का “पुरुषार्थ से ही मोक्ष प्राप्ति " का पूरा प्रकरण पृष्ठ ३०९ से ३१३ तक अवश्य पढ़ना चाहिए। उसके पृष्ठ ३१२ पर कहा है कि ―――――― “ तथा इस अवसर में जो जीव पुरुषार्थ से तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग लगाने का अभ्यास रखें, उनके विशुद्धता बढ़ेगी, उससे कर्मों की शक्ति हीन होगी, कुछ काल में अपने-आप दर्शनमोह का उपशम होगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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