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दृष्टास्तीर्थकृतोऽपुत्रा पञ्चकल्याणभागिनः | देवेन्द्रपूज्यपादाब्जा लोकत्रयविलोकिनः ॥ ८ ॥
अर्थ-अनेक लोग इस लोक में पुत्र से पुण्यवान् कहे जाते हैं और पुत्रहीन पापी कहे जाते हैं। परन्तु बहुतेरे पुत्रवान् नीच और दाने माँगते हुए देखे जाते हैं, तथा पुत्र-रहित पञ्च कल्याण के भागी देवेन्द्रों से पूज्य हैं चरणकमल जिनके और तीन लोक के देखनेवाले तीर्थङ्कर भी देखे जाते हैं ॥ ८६ ॥
ज्येष्ठोऽविभक्तभ्रातॄन वै पितेव परिपालयेत् ।
तेऽपि तं भ्रातरं ज्येष्ठ जीनीयुः पितृवत्सदा ॥ १० ॥
अर्थ - ज्येष्ठ भाई को चाहिए कि अपने ग्रविभक्त अर्थात् एकत्र रहनेवाले भाइयों का पिता के समान पालन करे और उन भाइयों को भी चाहिए कि ज्येष्ठ भाई को सदैव पिता के समान मानें ॥ १० ॥
यद्यपि भ्रातृणामेकचित्तत्वं पुण्यप्रभावस्तथापि । धर्मवृद्ध पृथग्भावनमपि योज्यम् ॥ ११ ॥ मुनीनामाहारदानादिना सर्वेषां पुण्यभागित्वात् । भोगभूमिजन्मरूपफलप्राप्तिः स्यात्तदेवाह ।। १२ ।।
अर्थ – यद्यपि भाइयों का एकचित्तत्व होना पुण्य का प्रभाव है, तथापि धर्म की वृद्धि के लिए पृथक-पृथक होना भी योजनीय है । क्योंकि मुनियों के आहार दानादि के द्वारा जो पुण्य होगा उसके
* पितेव पालयेत्पुत्राञ्ज्येष्ठो भ्रातॄन् नयवीयसः । पुत्रवच्चापि वर्तेरन् ज्येष्ठ भ्रातरि धर्मतः ॥
- मनुस्मृति श्र० ६ श्ले० ८ । विभक्तानविभक्तान्वै भ्रात ज्येष्टः पितेव सः । पालयेत्तेऽपि तं ज्येष्ट सेवन्ते पितरं यथा ॥
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- अनीति श्लो० २२ ।
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