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________________ सब भाई पृथक्-पृथक् भागी होंगे, जिसके कि फल-रूप भोग-भूमि में जन्म की प्राप्ति होती है ।। ११-१२ ॥ विभक्ता भ्रातरो भिन्नास्तिष्ठन्तु सपरिच्छदाः । दानपूजादिना पुण्यं वृद्धि: संजायतेतराम् ।। १३ ।। अर्थ - विभक्त हुए भाई अपने-अपने परिवार के सहित भिन्नभिन्न रहें, क्योंकि दान, पूजा आदि कार्यों से विशेष पुण्यवृद्धि होती है ।। १३ ।। तद्रव्य द्विविधं प्रोक्तं स्थावरं जङ्गमं तथा । स्थानादि स्थावरं प्रोक्त यदन्यत्र न गम्यते ॥ १४ ॥ ----- अर्थ- वह द्रव्य, जिसका दायभाग किया जाता है, दो प्रकार का कहा गया है, एक स्थावर ( ग़ैरमन कूला) और दूसरा जङ्गम ( मन कूला ) । जिस द्रव्य का गमन अन्यत्र न हो सके, अर्थात् जो कहीं जा न सके, जैसे कि स्थानादि, उसे स्थावर कहते हैं ।। १४ ।। जङ्गमं रौप्य गाङ्गय भूषा वस्त्राणि गोधनम् । यदन्यत्र परेणापि नीयते स्त्र्यादिकं तथा ।। १५ ।। अर्थ — और जो अन्यत्र भी पहुँचाया जा सके जैसा कि चाँदी, - सोना, भूषण, वस्त्र, गोधन ( गाय भैंस श्रादि चौपाये ) और दास दासी आदि, सो सब जङ्गम द्रव्य है ।। १५ ।। स्थावरं न विभागार्ह नैव कार्या विकल्पना । स्थास्याम्यत्र चतुष्पादेवात्र त्वं तिष्ठ मद्गृहे ।। १६ ।। अर्थ-स्थावर द्रव्य विभाग करने के योग्य नहीं है* । उसके "यहाँ पर चतुर्थ विभाग करने की कल्पना नहीं करनी चाहिए । * न विभज्यं न विक्रेयं स्थावरं न कदापि हि । प्रतिष्ठाजनकं लेोके आपदाकालमन्तरम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only अर्हन्नीति ५ । www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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