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________________ अर्थ-माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् वे सब भाई पैत्रिक सम्पत्ति को एकत्र करके बराबर-बराबर बाँट ले। परन्तु उनके जीते जी पिता के इच्छानुसार ही ग्रहण करें ॥४॥ ज्येष्ठ एव हि गृह्णीयात्पित्र्यं धनमशेषतः । अन्ये तदनुसारित्वं भजेयुः पितरं यथा ।। ५ ।। अर्थ-पिता का सम्पूर्ण धन ज्येष्ठ ( बड़ा ) पुत्र ही ग्रहण करता है; शेष छोटे पुत्र उस अपने बड़े भाई को पिता के समान मानके उसकी आज्ञा में रहते हैं ।। ५ ।। प्रथमोत्पन्नपुत्रेण पुत्रो भवति मानवः । पुनर्भवन्तु कतिचित्सर्वस्याधिपतिर्महान ।। ६ ।। अर्थ----प्रथम उत्पन्न हुए पुत्र से मनुष्य पुत्री* अर्थात् पुत्रवान् होता है, और पीछे से कितने ही पुत्र क्यों न पैदा हों परन्तु उन सबका अधिपति वह बड़ा पुत्र ही कहलाता है।। ६ ।। यस्मिन् जाते पितुर्जन्म सफलं धर्मजे सुते । पापित्वमन्यथा लोका वदन्ति महदद्भुतम् ।। ७ ।। अर्थ-जिस धर्मपुत्र के उत्पन्न होने से पिता के जन्म को लोक सफल कहते हैं उसी के न होने से उसको पापी कहते हैं। यह बड़ा आश्चर्य है ॥ ७ ॥ पुत्रेण स्यात्पुण्यवत्त्वमपुत्रः पापभुम्भवेत् ।। पुत्रवन्तोऽत्र दृश्यन्ते पामराः कणयाचका: ।।८।। * ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः। -मनुस्मृति अ०६, श्लो०६। पूर्वजेनतु पुत्रेण अपुत्रः पुत्रवान् भवेत् । -अहन्नीति श्लो. २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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