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________________ श्री भद्रबाहुसंहिता दायभाग संसृता पुत्रसद्भावो भवेदानन्दकारकः यदभावे वृथा जन्म गृह्यते दत्तको नरैः ॥ १ ॥ अर्थ संसार में पुत्र का सद्भाव ( होना) ऐसा आनन्दकारक है कि, जिसके अभाव में जन्म ही व्यर्थ समझा जाता है : इसलिए औरस पुत्र के अभाव में मनुष्य दत्तक पुत्र ग्रहण करते हैं || १ || बहवो भ्रातरो यस्य यदि स्युरेकमानसाः । महत्पुण्यप्रभावोऽयमिति प्रोक्तं महर्षिभिः ॥ २ ॥ - अर्थ - यदि किसी के बहुत से भाई एक चित्तवाले हों तो इसको उसके बड़े भारी पुण्य का प्रभाव समझना चाहिए, ऐसा महर्षियों ने कहा है ॥ २ ॥ पुण्ये न्यूनं भ्रातरस्ते द्रुह्यन्ति धनलोभतः । आपत्तौ तन्निवृत्यर्थ दायभागो निरूप्यते ॥ ३॥ PRESE अर्थ -- पुण्य के न्यून होने पर वे बहुत से भाई धन के लाभ से परस्पर द्रोह भाव को प्राप्त होते हैं, अर्थात् आपस में लड़ते-झगड़ते हैं। ऐसी आपत्ति में उसके ( वैर भाव के ) निवारण करने के लिए यह दायभाग निरूपित किया जाता है ॥ ३ ॥ पित्रोरूर्ध्वं भ्रातरस्ते समेत्य वसु पैतृकम् । विभजेरन् समं सर्वे जीवतो पितुरिच्छ्या ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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