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________________ द्वितीय भाग त्रैवर्णिकाचार ग्यारहवाँ अध्याय अन्यगोत्रभवां कन्यामनातङ्कां सुलक्षणाम् । आयुष्मतों गुणाढ्यां च पितृदत्तां वरेद्वरः ॥ ३ ॥ जो अन्य गोत्र की हो, रोगरहित हो, उत्तम लक्षणोंवाली हो, दीर्घ आयुवाली हो, उत्तम गुणों से भरी-पुरी हो और अपने पिता द्वारा दी जावे, ऐसी कन्या के साथ विवाह करे || ३ || वरोऽपि गुणवान् श्रेष्ठो दीर्घायुर्व्याधिवर्जितः । सुकुली तु सदाचारी गृह्यतेऽसौ सुरूपकः ॥ ४ ॥ वर भी गुणवान, श्रेष्ठ, दीर्घ आयुवाला, निरोगी, उत्तम कुल का, सदाचारी और रूपवान् होना चाहिए ॥ ४ ॥ पादेऽपि मध्यमा यस्याः क्षितिं न स्पृशति यदि । द्वौ पूरुषावतिक्रम्य सा तृतीये न गच्छति ॥ २० ॥ जिसके पैर की बिचली उँगलो ज़मीन पर न टिकती हो तो समझना चाहिए कि वह दो पुरुषों को छोड़कर तीसरे के पास नहीं जायगी ।। २० । यस्यास्त्वनामिक हस्वा तां विदुः कलहप्रियाम् । भूमिं न स्पृशते यस्याः खादते सा पतिद्वयम् ॥ २४ ॥ जिसके पैर की अनामिका उँगली छोटी हो उसे कलहकारिणी समो और उसकी वह उँगली यदि ज़मीन पर न टिकती हो तो समो कि वह कन्या दो पतियों को खायगी ॥ २४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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