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________________ इत्थं लक्षणसंयुक्तां षडष्टराशिवर्जिताम् । वर्णविरुद्धासंत्यक्तां सुभगां कन्यकां वरेत् ॥ ३५ ॥ जो ऊपर कहे हुए शुभ लक्षणों से युक्त हो, पति की जन्म-राशि से जिसकी जन्म-राशि छठवीं या आठवीं न पड़ती हो, और जिसका वर्ण पति के वर्ण से विरुद्ध न हो, ऐसी सुभग कन्या के साथ विवाह करना चाहिए ।। ३५ ।। रूपवती स्वजातीया स्वतालध्वन्यगोत्रजा। भोक्तुं भोजयितुं योग्या कन्या बहुकुटुम्बिनी ।। ३६ । जो रूपवती हो, अपनी जाति की हो, वर से आयु और शरीर में छोटी हो, दूसरे गोत्र की हो; और जिसके कुटुंब में बहुत से स्त्रीपुरुष हों, ऐसी कन्या विवाह के योग्य होती है ।। ३६ ।। सुतां पितृध्वसुश्चैव निजमातुलकन्यकाम् । स्वसारं निजभार्यायाः परिणेता न पापभाक ।। ३७ ।। बूआ की लड़की के साथ, मामा की कन्या के साथ और साली के साथ विवाह करनेवाला पातकी नहीं है ॥ ३७ ।। ___ नोट-आजकल इस कायदे पर स्थानीय रिवाज के अनुसार अमल हो सकता है। इसलिए सोमदेवनीति में कहा है कि "देशकालापेक्षो मातुलसम्बन्धः' अर्थात् मामा की लड़की के विवाह देश और काल के रिवाज के मुताबिक ही होता है। पुत्री मातृभगिन्याश्च स्वगोत्रजनिताऽपि वा। श्वश्रध्वसा तथैतासां वरीता पातकी स्मृतः ॥ ३८॥ अपनी मौसी की लड़की, अपने गोत की लड़की तथा अपनी सास की बहन के साथ विवाह करनेवाला पातकी माना गया है ।। ३८ ॥ स्ववयसोऽधिकां वरुन्नता वा शरीरतः । गुरुपुत्रीं वरेन्नैव मातृवत्परिकीर्तिता ।। ४०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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