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________________ (घ) मुकदमे बाज़ी की सूरत में प्रत्येक सच्चे जैनी का जो संसार भ्रमण से भयभीत और मोक्ष का जिज्ञासु है यही कर्त्तव्य है कि वह सांसारिक धन सम्पत्ति के लिए अपनी आत्मा को मलिन न करे और दुर्गति से भयभीत रहे। यदि किसी स्थान पर कोई रीति यथार्थ में जैन-लॉ के लिखित नियम के विरुद्ध है तो स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए कि जैन-लॉ तो यही है जो पुस्तक में लिखा हुआ है किन्तु रिवाज इसके विरुद्ध है। और उसको प्रमाणित करना चाहिए। इस पर भी यदि कोई सज्जन न माने तो उनकी इच्छा। किन्तु ऐसी अवस्था में किसी जैनी को उनकी सहायता नहीं करनी चाहिए। न उनको असत्य के पक्ष में कोई साक्षा ही मिलना चाहिए। वरन् जो जैनी साक्षी में उपस्थित हो उसको साफ़ साफ़ और सत्य सत्य हाल प्रकट कर देना चाहिए। और सत्य बात को नहीं छुपाना चाहिए। जब उभय पक्ष के गवाह स्पष्टतया सत्य बात का पक्ष लेंगे तो फिर किसी पक्ष की हठधर्मी नहीं चलेगी। विचार होता है कि यदि इस प्रकार कार्यवाही की जायगी तो जैनलॉ की स्वतन्त्रता की फिर एक बार स्थिति हो जायगो । (५) इस जैन-लॉ में वर्तमान जैन शास्त्रों का संग्रह, बिना इस विचार के कि ये दिगम्बरी वा श्वेताम्बरी सम्प्रदाय के हैं, किया गया है। यह हर्ष की बात है कि उनमें परस्पर मतभेद नहीं है। इसलिए यह व्यवस्था ( कानून ) सब ही सम्प्रदायवालों को मान्य हो सकती है। और किसी को इसमें विरोध नहीं होना चाहिए । (६) जैन-लॉ और हिन्दू-लाँ ( मिताक्षरा) में विशेष भिन्नता यह है कि हिन्दू-लॉ में सम्मिलित-कुल में ज्वाइंटइस्टेट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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