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दायाद का क्रम कुछ थोड़े से हेर फेर और संक्षेप से बताया है। वह इस प्रकार है-१-सबसे बड़ी विधवा, २-पुत्र, ३-सवर्णा माता से उत्पन्न भतीजा, ४-दोहिता, ५-गोत्रज, ६-मृतक की जाति का कोई छोटा बालक ( २ ) (जिसे उसके पुत्र की विधवा दत्तक लेवे)। अर्हन्नीति इस क्रम से पूर्णतया सहमत है (देखो श्लो० ७४-७५) । उसका क्रम इस प्रकार है-प्रथम विधवा, पुनः पुत्र, पुनः भतीजा, पुनः सपिण्ड, पुनः दोहिता, पुनः बंधु का पुत्र, फिर गोत्रज, इन सबके अभाव में ज्ञात्या, और सबके अन्त में राजा दायाद होता है । ___दायादों में स्त्री का स्थान पुत्र से पहिले है (३)। स्त्री की सम्पत्ति का, जो स्त्रीधन न हो, प्रथम दायाद उसका पति फिर पुत्र (४) होता है। पुत्र के पश्चात् उसके पति के भाई भतीजे ( स्वयं उसके नहीं ) क्रम से दायाद होते हैं। निकटवर्ती दायाद के होते दूरवर्ती को अधिकार नहीं है; अतएव भाई का सद्भाव भतीजों को दायभाग से वञ्चित कर देता है (६)। इसी नीति से मृतक का पिता भाई से पहिले दाय का अधिकारी होगा, जैसे हिन्दू-लॉ में भी बताया है। पुत्र शब्द में कानूनी परिभाषा के अनुसार पौत्र और अनुमानत: परपौत्र भी अंतर्गत हैं ( ७ ), जैसा हिन्दू-लॉ में भी है ( देखो सुन्दरजी
(२) इसका शब्दार्थ भाव ७ वर्ष की आयु के पति के छोटे भाई का है। ऐसा ही भाव अहन्नीति में मिलता है देखो अर्हन्नीति श्लो० ५६ ( जहाँ दत्तक का सम्बन्ध है)।
(३) भद. ११०; अह ११२ । (४) अह. ११५-११७; भद • ६७ ।
(५),, ११५-११७; ,, 89; और देखो अहं५५ जहां विधवा के भाई के पुत्र को गोद लेने का भावार्थ पति के भतीजे का है।
(६) इन्द. ३६ । (७) अह १७; इन्द्र • २५।
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