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रूप से लेंगे (४२)। भद्रबाहु संहिता के अनुसार बहिन भी भाग की अधिकारिणी है (४२)। परन्तु अनुमानतः इस श्लोक का अर्थ कुँवारी बहिन से है जिसके विवाह का दायत्व भाइयों पर ही है। उसका भाग भी उसके भ्राताओं के समान ही बताया गया है जो निस्सन्देह पद्यरचना की आवश्यकताओं के कारणवश है । क्योंकि अन्यथा बहिन का भाग भाई के समान होना नियम-विरुद्ध है। बहुत सम्भव है कि यह माप उसके विवाह-व्यय के निमित्त जो द्रव्य पृथक् की जावे उसकी अन्तिम सीमा हो ।
विद्याध्ययन एवं विवाह निमित्त लघु
_भ्राताओं के अधिकार छोटे भाइयों का विवाह करके जो धन बचे उसे सब भाई समान बाँट लें (४३)। इस विषय में विवाह में विद्यापठन भी अर्हन्नीति के शब्दों के विस्तृत भावों की अपेक्षा सम्मिलित है (४३)।
माता के अधिकार यदि पिता की मृत्यु पश्चात् बाँट हो तो माता को पुत्रों के समान भाग मिलता है (४४)। वास्तव में उल्लेख तो यह है कि उसे पुत्रों से कुछ अधिक मिलना चाहिए जिससे वह परिवार और कुटुम्ब की स्थिति को बनाये रक्खे (४५)। इस प्रकार यदि ४ पुत्र और एक विधवा जीवित है तो मृतक की सम्पत्ति के ५ समान भाग किये जायँगे जिनमें से एक माता को और शेष चार में से एक एक प्रत्येक भाई को मिलेगा। माता को कितना अधिक दिया जाय इसकी
( ४२ ) भद्र० १०६; वर्ध० ५२। ( ४३ ) वर्ध० ७; अहं० २० । ( ४४ ) भद्र० २१; वध० १०, इन्द्र० २७ । (४५) " २१; " १०; अह. २८ ।
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