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________________ की नहीं है और पिता की ही स्वयं उपार्जित है तो पुत्रों को कोई अधिकार विभाजित कराने का नहीं है। जो कुछ भाग पिता प्रसन्नतापूर्वक पुत्र को पृथक करते समय दे उसे उसी पर संतोष करना चाहिए (१८)। माता की जीवनावस्था में जिस द्रव्य की वह स्वामिनी है उसको भी पुत्र केवल उसके इच्छानुसार ही पा सकते हैं (१८)। माता पिता की मृत्यु के पश्चात् विभाग पिता की मृत्यु के पश्चात् सब भाई पैत्रिक ( बाप की ) सम्पत्ति को समानतः बाँट लें ( १८)। प्रथम ऋण चुकाना चाहिए (यदि कुछ हो ) तत्पश्चात् शेष सम्पत्ति विभक्त करना उचित है (१६)। ज्येष्ठांसी जैन-नीति में सबसे प्रथम उत्पन्न हुए पुत्र का अधिकार कुछ विशेष माना गया है (२०)। बाबा की सम्पत्ति के अतिरिक्त पिता की स्वयं उपार्जित सम्पत्ति को ज्येष्ठ पुत्र ही पायेगा। अन्य लघु पुत्र अपने ज्येष्ठ भ्राता को पिता के समान मानकर उसकी आज्ञा में रहेंगे (२१)। यह नियम राज्य अथवा बड़ी बड़ी रियासतों से लागू होगा। परन्तु राज्यादि की अवस्था में जो छोटे भाई अपने बड़े भाई की आज्ञा का पालन करते रहेंगे उनके निर्वाह आदि का दायत्व बड़े भाई पर होगा। यह तो कानूनी परिणाम ही होता है। विभाग के समय सम्पत्ति की अपेक्षा से कुछ भाग (जैसे दशांश) ज्येष्ठ भ्राता के निमित्त पृथक कर दिया जावे; शेष सम्पत्ति सब भाइयों में (१८) भद्र० ४; वध ८, अहं ० १५ । (१६) भद्र० १११; अहं० १६ । (२०) , ६। (२१) ,, । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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