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________________ विभाग हिन्दु-लॉ के विरुद्ध जैन- लॉ विभाग को उत्तम बतलाता है क्योंकि उससे धर्म की वृद्धि होती है और प्रत्येक भाई को पृथक् पृथक् धर्म - लाभ का शुभ अवसर प्राप्त होता है ( ११ ) । विभागयोग्य जो सम्पत्ति नहीं है उसे छोड़कर शेष सब प्रकार की सम्पत्ति नीति और मुख्य रिवाज के अनुसार ( यदि कोई हो ) दायादों में विभक्त हो सकती है (१२) । पिता की जो सम्पत्ति विभागयोग्य नहीं है उसको केवल सबसे बड़ा पुत्र ही पावेगा ( १३ ) । वह पुत्र जो चोरी, विषय- सेवन अथवा अन्य व्यसनों में लिप्त है और अत्यन्त दुराचारी है अदालत के द्वारा अपने भाग से वंचित रक्खा जा सकता है (१४) । पिता की उपार्जित सम्पत्ति जैसे राज्यादि, जो ज्येष्ठ पुत्र को मिली है, उसमें छोटे भाइयों को, जो विद्याध्ययन में संलग्न हों, कुछ भाग गुज़ारे निमित्त मिलना चाहिए (१५) । परन्तु शेष (विभागयोग्य ) सम्पत्ति में अन्य सब भाई समान भाग के अधिकारी हैं जिससे वे व्यापार आदि व्यवसाय कर सकते हैं (१६) । पिता की जीवन-अवस्था में विभाग बाबा की सम्पत्ति में से पुत्रों को, उनकी माताओं को और पिता को समान भाग मिलने चाहिए (१७) । परन्तु यदि सम्पत्ति बाबा ( ११ ) भद्र० १३ । ( १२ ) इन्द्र ० ४५; भद्र० ४ । ( १३ ) भद्र० १०० । (१४) श्र० ८६ – ८७ और १२० । ( १५ ) भद्र० ६८ । (१६) भद्र० ६६ ॥ ( १७ ) अह० २७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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