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________________ तृतीय परिच्छेद सम्पत्ति जैन - लॉ के अनुसार सम्पत्ति के स्थावर और जङ्गम दो भेद हैं । जो पदार्थ अपनी जगह पर स्थिर है और हलचल नहीं सकता वह स्थावर है, जैसे गृह, बाग़ इत्यादि; और जो पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान में सुगमता पूर्वक प्रा जा सकता है वह जङ्गम है (१) । दोनों प्रकार की सम्पत्ति विभाजित हो सकती है । परन्तु ऐसा अनुरोध है कि स्थावर द्रव्य अविभाजित रक्खे जायँ (२) । क्योंकि इसके कारण प्रतिष्ठा और स्वामित्व बने रहते हैं ( देखा अनीति ० श्लो० ५ ) । दाय भाग की अपेक्षा सप्रतिबन्ध और अप्रतिबन्ध दो प्रकार की सम्पत्ति मानी गई है । पहिली प्रकार की सम्पत्ति वह है जो स्वामी के मरण पश्चात् उसके बेटे, पोतों को सन्तान की सीधी रेखा में पहुँचती है। दूसरी वह है जो सीधी रेखा में न पहुँचे वरन चाचा, ताऊ इत्यादि कुटुम्ब सम्बन्धियों से मिले (३) । सम्पत्ति जो विभाग योग्य नहीं है निम्न प्रकार की सम्पत्ति भाग योग्य नहीं है १ - जिसे पिता ने अपने निजी मुख्य गुणों या पराक्रम द्वारा प्राप्त किया हो; जैसे, राज्य (४) । (१) भद्र ० १४-१५; श्रर्ह० ३–४ । ( २ ) भद्र० १६ और ११२ श्र० ५ । (३) श्रह ० २; इन्द्र ०२ । C ( ४ ) भद्र० १०० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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