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________________ आजकल केवल प्रथम प्रकार का विवाह ही प्रचलित है; शेष सब प्रकार के विवाह बन्द हो गये हैं। श्रोआदिपुराण के अनुसार स्वयंवर विवाह जिसमें कन्या स्वयं वर को चुने सबसे उत्तम माना गया है। परन्तु अब इसका भी रिवाज नहीं रहा । विधवाविवाह विधवाविवाह उत्तरीय भारत में प्रचलित नहीं है। परन्तु बरार और आस पास के प्रान्तों में कुछ जातियों में होता है जैसे सेतवाल। पुराणों में कोई उदाहरण विधवाविवाह का नहीं पाया जाता है किन्तु शास्त्रों में कोई आज्ञा या निषेध स्पष्टतः इस विषय के सम्बन्ध में नहीं है। परन्तु त्रिवर्णाचार के कुछ श्लोक ध्यान देने योग्य हैं (२८)। इसलिए विधवाविवाह-सम्बन्धी मुक़दमों का निर्णय देश के व्यवहार के अनुसार ही किया जा सकता है। विवाहविधि वाग्दान, प्रदान, वरण, पाणिपीड़न और सप्तपदी विवाह के विधान के पाँच अंग है (२६)। वाग्दान ( engagement ) अथवा सगाई उस इकरार को कहते हैं जो विवाह के पूर्व दोनों पक्षों में विवाह के सम्बन्ध में होता है। प्रदान का भाव वर की ओर से गहना इत्यादि का कन्या को भेंट रूप से देने का है। वर्ण कन्यादान को कहते हैं जो कन्या का पिता वर के निमित्त करता है। पाणिपीड़न या पाणिग्रहण का भाव हाथ मिलाने से है (क्योंकि विवाह के समय वर और कन्या के हाथ मिलाये जाते हैं)। सप्तपदी भाँवरों को कहते हैं। कन्यादान पिता को करना (२८) . अ० ११ श्लो० २० और २४ । (२६) त्रै० व० अध्याय ११ श्लो० ४१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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