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________________ पाप का भागी नहीं होता। बहुत से तीर्थङ्कर पुत्रवान् न होकर भी परम पूज्य पद को प्राप्त हुए। इसके विपरीत बहुत से मनुष्य पुत्रवान होते हुए भी नरकगामी होते हैं। न तो जैन-धर्म का यह उपदेश है न हो सकता है कि कोई अपनी क्रियाओं या दानादि से किसी मृतक जीव को लाभ पहुँचा सकता है। पिण्डदान का शब्द जहाँ कहीं जैन नीति-शास्त्रों में मिलता है उसका वही अर्थ नहीं है जो हिन्दुओं के शास्त्रों में पाया जाता है कि पितरों के लाभार्थ पिण्ड देना। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनियों ने यह शब्द अत्याचार के समय में ब्राह्मण जाति के प्रसन्नार्थ अपनी कुछ कानूनी पुस्तकों में बढ़ा लिया। जैन-लॉ में पिण्डदान का अर्थ शब्दार्थ में लगाना होगा। जैसे सपिण्ड का अर्थ शारीरिक अथवा शरीर सम्बन्धी है उसी प्रकार पिण्डदान का अर्थ पिण्ड का प्रदान करना, अथवा वीर्यदान करना, भावार्थ पुत्रोत्पत्ति करना है जिसके द्वारा पिण्ड अर्थात् शरीर की उत्पत्ति होती है। जैन-सिद्धान्त के अनुसार पिण्डदान का इसके अतिरिक्त और कोई ठीक अर्थ नहीं हो सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि अर्हनोति में जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय का एक मात्र नीति-सम्बन्धी ग्रन्थ है पिण्डदान का उल्लेख कहीं भी नहीं आया है। स्त्रियों के अधिकारों के विषय में भी जैन-लॉ और हिन्दू-लॉ में 'बहुत बड़ा अन्तर है। जैन-लॉ के अनुसार स्त्रियाँ दाय भाग की पूर्णतया अधिकारिणी होती हैं। हिन्दू-लॉ में उनको केवल जीवन पर्यत ( life estate ) अधिकार मिलता है। सम्पत्ति का पूर्ण स्वामित्व हिन्दू-लॉ के अनुसार पुरुषों ही को मिलता है। पत्नी . पूर्णतया अर्धाङ्गिनी के रूप में जैन-लॉ में ही पाई जाती है। पुत्र (३) भद्रबाहु सं०८-६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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