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भी उसके समक्ष कोई अधिकार नहीं रखता है। जैन-लॉ में लड़का केवल बाबा ( पितामह ) की संपत्ति में अधिकारी है। पिता की निजी स्थावर सम्पत्ति में उसको केवल गुज़ारे का अधिकार प्राप्त है।
और अपने जङ्गम द्रव्य का पिता पूर्ण अधिकारी है चाहे जिस प्रकार व्यय करें। इसके अतिरिक्त हिन्दू-लॉ में अविभाजित दशा की प्रशंसा की गई है। जैन-लॉ में उसका निषेध न करते हुए भी पृथक्ता का अाग्रह है ताकि धर्म की वृद्धि हो । जैन-लों में अविभाजित सम्पत्ति भी सामुदायिक द्रव्य ( tenancy in common ) के रूप में है न कि मिता बरा के अनुसार अविभक्त सम्पत्ति (joint estate ) के तौर पर : यदि कोई पुत्र धर्मभ्रष्ट एवं दुष्ट वा ढीठ है और किसी तरह से न माने तो जैन-नीति के अनुसार उसको घर से निकाल देने की आज्ञा है परन्तु हिन्दू-लॉ के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता। इसी प्रकार के अन्य भेदात्मक विषय हैं जो हिन्दू-लाँ और जैन-लॉ के अवलोकन से स्वय ज्ञात हो जाते हैं। इसलिए यह कहना कि जैन-धर्म हिन्दू-धर्म की शाखा है और जैन-लॉ, हिन्दू-लॉ समान हैं, नितान्त मिथ्या है। ___अन्तिम सङ्कलित भाग में मैंने वह निबन्ध जोड़ दिया है जो डा० गौड़ के हिन्दू-कोड के सम्बन्ध में लिखा था। परन्तु उसमें से वह भाग छोड़ दिया है जिसका वर्तमान विषय से कोई सम्बन्ध नहीं है। तथा उसमें कुछ ऐसे विशेष नोट बढ़ा दिये गये हैं जिनसे इस बात का एतिहासिक ढंग से पता लगता है कि जैनियों पर हिन्दू-लॉ को लागू करने का नियम कैसे स्थापित किया गया। ____ अन्ततः मैं उन विनयोन्मत्त धर्मप्रेमियों से जो अभी तक शास्त्रों के छपाने का विरोध करते चले आते हैं अनुरोध करूँगा कि अब वह समय नहीं रहा है कि एक दिन भी और हम अपने शास्त्रों को
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