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ने तजवीज़ फ़रमाया है कि "न तो हिन्दू-खों में और न जैन शास्त्रों ही में कोई ऐसा नियम पाया जाता है कि जिसके अनुसार पिता अपने वय:प्राप्त ( बालिग) पुत्रों की परवरिश करने के लिए बाध्य कहा जा सके।" निस्सन्देह यह नितान्त वही दशा नहीं है कि जहाँ एक सीधे ( Affirmative) रूप में किसी बातका अस्तित्व दिखाया जावे, अर्थात् यह कि फलाँ शास्त्र में फलाँ नियम उल्लिखित है। परन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि अदालत ने यह नहीं फ़रमाया कि जैनियों का कोई शास्त्र नहीं है और न यह कि जैनी लोग हिन्दु-ला के पाबन्द हैं। __सन् १८७३ ई० में हमको फिर हीरालाल ब. मोहन ब मु. भैरो के मुकदमे में ( जो छापा नहीं गया, परन्तु जिसका हवाला ६-एन० डब्ल्यु. पी. हाईकोर्ट रिपोर्ट स पृष्ठ ३८८-४०० पर दिया गया है) जैन-लॉ का पृथक रूप से अस्तित्व मिलता है। इसको अदालत अपील ज़िला ने स्वीकार किया और इसकी निस्बत इन शब्दों में अपना फैसला फ़रमाया कि "मुक़दमा का निर्णय जैनी लोगों के कानून से होगा। हिन्दू-ला की जैनियों पर इससे अधिक पाबन्दो नहीं हो सकती जितनी योरोपियन खुदापरस्तों पर हो सकती है।" मगर हाईकोर्ट में घटनाओं ने अपना रूप बदला । बुद्धिमान जज महोदयों ने अपनी तजवीज़ में लिखा है कि "अपीलान्ट की ओर से यह बहस नहीं की जाती है कि हिन्दू-लॉ बहै. सियत हिन्दू-लॉ के जैनियों से सम्बन्धित है। परन्तु उनकी यह बहस है कि हिन्दू-लॉ और जैन-लॉ में इस विषय की निस्बत कोई अन्तर नहीं है कि विधवा किस प्रकार का अधिकार पति की सम्पत्ति में पाती है।" अन्ततः अदालत मातहत को कतिपय तनकी वापस हुई जिनमें एक तनकीह यह भी थी कि जैन-लॉ के अनुसार
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