SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन् १८६० में पृष्ठ २६३ पर प्रकाशित है और जिसका हवाला द एन० डब्ल्यु. पी० हाईकोर्ट रिपोट्स पृष्ठ ३६६ पर मिलता है)। इस मुकदमे में पहिले पहिल यह तै हुआ था कि "श्रावगी फरीकन ( पक्षियों ) के दाय के झगड़े जैन-लॉ के अनुसार तै होने चाहिए, जिसका निर्णय श्रेष्ठतम साक्षी से जो प्राप्त हो सके करना चाहिए।" इस प्राग्रह के साथ यह मुकदमा अदालत अव्वल में नये सिरे से सुने जाने के लिए वापिस हुआ । जब फिर यह मुकदमा हाईकोर्ट में पहुँचा तो वहाँ पर हर दो पक्षियों की ओर से यह मान लिया गया कि "श्रावगियों की. कौम के कोई धार्मिक या नीति के शास्त्र नहीं हैं जिनके अनुसार इस प्रकार के विषयों का निर्णय पूर्ण रीति से हो सके।" ___खेद ! जैन शास्त्रों की दशा पर ! जैनियों के अपने शास्त्रों के छिपा डालने के स्वभाव की बदौलत हिन्दू वकील जो मुक़दमें में पैरवी करते थे जैन शात्रों के अस्तित्व से नितान्त ही अनभिज्ञ निकले। और तिस पर भी जैनियों की घोर निद्रा न खुली ! इसके पश्चात् विहारीलाल ब. सुखवासीलाल का मुकदमा जो सन् १८६५ ई० में फैसल हुआ ध्यान देने योग्य है। इस मुकदमे ' में यह तय हुआ कि "जैन लोगों के खानदान हिन्दू शास्त्रों के पाबन्द नहीं हैं।" पश्चात् के मुकदमे शम्भूनाथ ब. ज्ञानचन्द (१६ इलाहाबाद. ३७६-३८३) में इस निर्णय का अर्थ यह लगाया गया कि यह परिणाम माननीय होगा यदि कोई रिवाज साधारण शास्त्र अर्थात् कानून को स्पष्टतया तरमीम करता हुआ पाया जावे। परन्तु जहाँ ऐसा रिवाज नहीं है वहाँ हिन्दु-लॉ के नियम लागू होंगे। ___इसके पश्चात् का मुकदमा बङ्गाल का है (प्रेमचन्द पेपारा ब० हुलासचन्द पेपारा-१२ वीक्लो रिपोर्टर पृष्ठ ४६४)। इस मुकदमे की तजवीज़ में भी जैन शास्त्रों का उल्लेख है और अदालत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy