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________________ शास्त्रानुसार व पुत्र प्राया हुआ पुत्र, इनमें से कोई भी जैन शास्त्रानुसार दाय के अधिकारी नहीं हैं। अन्य मत के शास्त्रों में इनको स्वार्थवश पुत्र माना है ।। ७२-७३॥ पत्नी पुत्रश्च भ्रातृव्याः सपिण्डश्च दुहितृजः । बन्धुजो गोत्रजश्चैव स्वामी स्यादुत्तरोत्तरम् ।। ७४ ।। तदभावे च ज्ञातीयास्तदभावे महीभुजा । तद्धनं सफलं कार्य धर्ममार्गे प्रदाय च ।। ७५ ॥ अर्थ-स्त्री, पुत्र, भाई का पुत्र, सात पीढ़ी तक का वंशज, दोहिता, बन्धु का पुत्र, गोत्रज, और इनके प्रभाव में ज्ञात्या: यह क्रमश: एक दूसरे के अभाव में उत्तरोत्तर दायभागी होंगे। इन सबके अभाव में राजा मृतक के धन को किसी धर्मकार्य में लगाकर सफल बना दे ।। ७४-७५ ॥ प्रतिकूला कुशीला च निर्वास्या विधवापि सा। ज्येष्ठदेवरतत्पुत्रैः कृत्वान्नादिनिबन्धनम् ॥ ७६ ॥ अर्थ-यदि विधवा कुलाम्नाय के प्रतिकूल चलनेवाली और कुशोला है तो उसके पति के भाई भतीजों को चाहिए कि उसके गुज़ारे का प्रबन्ध करके उसको घर से निकाल दे॥७६ ।। सुशीलाप्रजस: पोष्या योषितः साधुवृत्तयः । प्रतिकूला च निर्वास्या दुःशीला व्यभिचारिणी ।। ७७ ॥ अर्थ-जो स्त्रियाँ सुशील हों जिनका आचरण अच्छा हो और जिनके कोई सन्तान न हो ऐसी स्त्रियों का पालन पोषण करना चाहिए। और जो व्यभिचारिणी हैं, बुरे स्वभाव की हैं और प्रतिकूल हैं उन्हें निकाल देना चाहिए ॥ ७७॥ भूतावेशादिविक्षिप्तात्युग्रव्याधिसमन्विता । वातादिदूषिताङ्गी च मूकांधाऽस्पष्टभाषिणी ।। ७८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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