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मदान्धा स्मृतिहीना च धनं स्वीय कुटुम्बकम् । त्रातु नहि समर्था या सा पोष्या ज्येष्ठदेवरैः ॥ ७८ ॥ भ्रातृजैश्च सपिंडैश्च बन्धुभिर्गोत्र जैस्तथा । ज्ञातिजै रक्षणीय तद्धनं चातिप्रयत्नतः ॥ ८० ॥ अर्थ - भूतादिक बाधा के कारण जो विधवा बावली हो, अत्यन्त रोगी हो, जो फालिज के रोग में मुब्तिला हो, जो गूँगी व अन्धी हो, जो साफ़ साफ़ बोल नहीं सकती हो, जो मान के मद से उन्मत्त हो, जो स्मरण शक्ति में असमर्थ हो और इस कारण अपने कुटुम्ब व धन की भी रक्षा न कर सके, ऐसी स्त्री के धन की रक्षा क्रमपूर्वक उसके पति के भाई, भतीजे, सात पीढ़ी तक के वंशियों को तथा चौदह पोढ़ी तक के वंशियों तथा और जाविवालों को यत्नपूर्वक करनी चाहिए ॥ ७८-८० ॥
यच्च दत्तं स्वकन्यायै यज्जामातृकुलागतम् । तद्धनं नहि गृह्णोयात् कोऽपि पितृकुलोद्भवः ॥ ८१ ॥ किन्तु त्राता न कोऽपि स्यात्तदा तातधनं तथा । रक्षेत्तस्या मृतैा तच्च धर्ममार्गे नियोजयेत् ॥ ८२ ॥
अर्थ - जो द्रव्य कन्या को ( खुद ) दिया हो या जो उसको उसकी ससुराल से मिला हो उसको कन्या के मैकेवालों को नहीं लेना चाहिए । किन्तु यदि उसका कोई रक्षक न रहे तो उस समय उस पुत्री की तथा उसके धन की रक्षा करे और उसके मरने पर उस धन को धर्म-मार्ग में लगा देवे ॥ ८१-८२ ॥
आत्मजो दत्रिमादिश्च विद्याभ्यासैकतत्परः ।
मातृभक्तियुतः शान्तः सत्यवक्ता जितेन्द्रियः ॥ ८३ ॥ समर्थो व्यसनापेतः कुर्याद्रीतिं कुलागताम् । कर्तुं शक्तो विशेषं नो मातुराज्ञा विमुच्य वै ॥ ८४ ॥
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