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________________ अर्हन्नीति लक्ष्मणातनयं नत्वा घुस दिन्द्रादिसेवितम् । गेयामेयगुणाविष्टं दायभागः प्ररूप्यते ।। १ ।। अर्थ-( माता) लक्ष्मणा रानी के पुत्र ( श्रीचन्द्रप्रभु स्वामी) को नमस्कार करके जिनको सम्पूर्ण प्रकार के इन्द्रादि देव प्रणाम करते हैं और जो सर्वगुणालंकृत हैं दायभाग का अध्याय रचा गया है॥१॥ स्वस्वत्वापादनं दायः स तु द्वविध्यमशुते । प्राज्ञः सप्रतिबन्धश्च द्वितीयोऽप्रतिबन्धकः ।। २ ।। अर्थ-जिसके द्वारा सम्पत्ति में अधिकार का निर्णय हो वह दाय है। यह दो प्रकार का है। एक सप्रतिबन्ध, दूसरा अप्रतिबन्ध ॥२॥ दायो भवति द्रव्याणां तद्द व्य द्विविधं स्मृतम् । स्थावरं जङ्गम चैव स्थितिमत स्थावरं मतम् ॥ ३ ॥ गृहभूम्यादिवस्तूनि स्थावराणि भवन्ति च । जङ्गमं स्वर्णरौप्यादि यत्प्रयोगेन गच्छति ॥ ४ ॥ अर्थ-दाय का सम्बन्ध द्रव्य से होता है। द्रव्य दो प्रकार का है। एक स्थावर दूसरा जङ्गम। जो पदार्थ स्थिर हों.-जैसे भूमि, फुलवाड़ी इत्यादि-वह सब स्थावर है। स्वर्ण-चाँदी इत्यादि जो पृथक हो सके सो जङ्गम है ॥ ३-४ ॥ न विभज्यं न विक्रेयं स्थावरं च कदापि हि। प्रतिष्ठाजनकं लोके आपदाकालमन्तरा ।। ५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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