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________________ अर्थ-स्थावर धन को जिसके कारण इस लोक में प्रतिष्ठा होती है किसी सूरत में भी आपत्ति-काल के अतिरिक्त बाँटना अथवा बेचना नहीं चाहिए ॥ ५ ॥ सर्वेषां द्रव्यजातानां पिता स्वामी निगद्यते । स्थावरस्य तु सर्वस्य न पिता न पितामहः ॥ ६ ॥ अर्थ-सर्व प्रकार के द्रव्य का पिता स्वामी कहा जाता है। परन्तु स्थावर द्रव्य के स्वामी न पिता होता है न पितामह ही ॥६॥ जीवत्पितामहे ताते दातुनो स्थावरे क्षमः । तथा पुत्रस्य सद्भावे पितामहमृतावपि ॥ ७ ॥ अर्थ-बाबा की ज़िन्दगी में पिता को स्थावर वस्तु को दे देने का अधिकार नहीं है। इसी प्रकार पुत्र की उपस्थिति में पितामह के न होते हुए भी स्थावर वस्तु को पिता दूसरे को नहीं दे सकता ॥ ७ ॥ पिता स्वोपार्जितं द्रव्यं स्थावर जङ्गमं तथा । दातु शक्तो न विक्रेतु गर्भस्थेऽपि स्तनंधये ॥८॥ अर्थ-पुत्र यदि गर्भ में हो अथवा गोद में हो तो पिता अपना स्वय उर्पाजन किया हुआ स्थावर-जङ्गम दोनों प्रकार का धन किसी को दे या बेच नहीं सकता है ॥८॥ अज्ञाता अथवा हीना: पितुः पुत्राः सदा भुवि । सर्वेवाजीविकार्थ हि तस्मिन्नंशहराः स्मृताः ॥ ६ ॥ अर्थ-पुत्र अज्ञानी, मूर्ख, अङ्गहीन, आचारभ्रष्ट भी हो तो भी अपनी रक्षा व गुज़ारे के लिए पिता के द्रव्य में भाग का अधिकारी है ॥६॥ बाला जातास्तथाऽजाता अज्ञानाश्च शवा अपि । सर्वेस्वाजीविकार्थ हि तस्मिन्नंशहरा स्मृताः ॥ १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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