________________
अन्नय सव्व समंसा सर्वसिया अंगणाहु संकुजा। जणय गणो विभाऊ अहम्मदे कन्जये कयाकुत्थ ।। ११ ।। जइचेदु करिज तहा अपभाणं हाइसब्बत्थ ।। सत्त विसणा सेवी विसयी कुट्ठो हु वादि उ विमुहो ।। १२ ।। गुरु मत्थय विमुहो विय अहियारी णेब रारि सो होइ। जिट्ठो गिण्हेइ धणं जं बिहुणिय जणय तज्जणय जणं ॥ १३ ॥ रक्खेइ तं कुडंबो जह पितरौ तह समग्गाई। उठाहु जादुहिदरो णिय णिय मायं स धणस्स मायरिहा ॥१४॥ तह भावेतस्स सुया तह भावे णिय सु उ बावि । अविभत्त विभत्त धण मुक्खे साहाइ भामिणी तत्थ ॥ १५ ॥
अर्थ-सब शेष पुत्र समान भाग लें और धर्मभार्या भी पुत्रों के समान भाग लें; इस प्रकार (भाग) उचित है। ( इसके विपरीत) अन्याय या किसी पृथक अभिप्राय से भी विभाग नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा विभाग किया गया है, तो वह सब जगह अनुचित ठहरेगा। जो पुत्र सप्त कुव्यसनासक्त, विषयी, कुष्ठो, अप्रिय, गुरु विमुख हो वह विभाग का अधिकारी न होगा । ज्येष्ठ पुत्र पिता व पितामह का विर्सा पाता है। जिस प्रकार से माता-पिता कुटुम्ब की रक्षा करते हैं, वैसे ही ज्येष्ठ पुत्र को करनी चाहिए; और सब परिवार भी उसको वैसा ही माने। यदि कोई विवाहिता पुत्री हो तो वह अपनी माता के धन की अधिकारिणी होगी। यदि उसका (पुत्री का) अभाव हो तो उसका पुत्र, उसका भी अभाव हो तो स्वयं अपना पुत्र अधिकारी होगा। जो धन बँटा हो या न बँटा हो उस धन की मुख्य अधिकारिणी धर्मभार्या होती है ॥ ११-१५ ॥
भत्तरि णठे विमदे बायाइ सुरुग्ग गहले वा । खेतं वत्थु धण वा धणु दुपय चदुपयं चावि ॥ १६ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org