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________________ अर्थ - पितामह (दादा या बाबा) की ज़िन्दगी में स्थावर धन को कोई नहीं ले सकता । परन्तु सब लोग अपने अपने आभरण वस्त्र उसमें से यथायोग्य पावेंगे ॥ ५ ॥ पुत्ताभावेपि पिदा उवाजिय' ज धणं त्वविक्केदु । सक्को योबि यदुपदंवा थावर धणं तहा रोय || ६ || अर्थ-पिता ने पुत्र के जन्म से प्रथम भी जो स्थावर द्रव्य स्वयं उपार्जन किया हो उसको भी वह बेच नहीं सकता है || ६ || जादा वा विप्रजादा बाला प्राणियो वा पिसुखा वा । इत्थं कुटुंबवग्गो जत्तायां धम्म किचम्मि तजले ||७|| एयो विवक्किय वा कुज्जादाण हि थावर सुवत्थु । मादा पिदा हु भावय जेट्ठ भाय गदुगं पुणो णो ||८|| सव्वे सम सग्गा हुय तेह कलहो नसं होई । मादा सुदव्य्छयावा विग्गा भागं सु भाय णामितं || || गिराहादि लंबडाविहु बुत्थो रुग्गोरू गयछहो कामी । दो वेस्सासत्तो गिन्हइ भायं जहोचियं तथ्य ॥ १० ॥ अर्थ - जात तथा प्रजात पुत्रों, नाबालिग और अयोग्य व्यक्तियों के होते हुए कोई भी यात्रा, धर्म-कृत्य, मित्र जन के वास्ते स्थावर धन को विक्रय अथवा दे नहीं सकता है । माता, पिता, ज्येष्ठ भ्राता और अन्य कुटुम्बियों अर्थात् दायादों की सम्मति से विक्रय कर सकते हैं । इस तरह से झगड़े नहीं होंगे । यदि माता स्वेच्छा से विभाग करे तो सब उचित भाग पाते हैं । यदि कोई व्यक्ति दुष्ट है या असाध्य रोग का रोगी है अथवा कोई वान्छा रहित, कामी, द्यूत ( जुवारी ), वेश्यासक्त है तो वह अपनी ज़रूरत भर के लिए भाग पावेगा ॥ ७-१० ॥ Jain Education International • · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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