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का कुल के व्यवहार के अनुकूल प्रबन्ध करे और अपने प्रयत्न से उसकी रक्षा करे ॥ २१ – २३ ॥
तन्मिषेणैव निर्वाहं कुर्यात्सा स्वजनस्य हि । कुर्याद्धर्मज्ञातिकृत्ये स्वतूनामधिविक्रये ॥ २४ ॥
अर्थ — उससे अपना निर्वाह करे और अपने कुटुम्ब का पालन करे । धर्म-कार्य तथा ज्ञाति-कार्यों के लिए विधवा स्त्री को अपने पति का धन खर्च करने तथा गिरवी रखने या बेचने का अधिकार है ॥ २४ ॥ प्रतिकूला भवेत्पुत्रः पितृभ्यां यदि सर्वथा ।
तत्पित्रादीन्समाहूय बोधयेच्च मृदूक्तितः ॥ २५ ॥ पुनश्चापि स्वयं दर्पाद्दुर्जनात्या हि तादृश: । तापयित्वा सुताद्धातं बन्धुभूपाधिकारिणः ।। २६ ।। तदाज्ञाँ पुनरादाय निष्कास्यो गृहतो ध्रुवम् । न तत्पूत्कारसंवादः श्रोतव्यो राजपंचभिः ॥ २७ ॥ पुनश्चान्यशिशुं भर्तुः स्थाने संयोजयेद्वधूः । सर्ववर्णेषु पुत्रो वै सुखाय गृह्यते यतः ॥ २८ ॥ विपरीतो भवेद्वत्सः पित्रा निःसार्यते ध्रुवम् । विवाहितोऽपि भूपाज्ञापूर्वकं जनसाक्षितः ॥ २८ ॥
अर्थ - दत्तक पुत्र यदि माता-पिता से प्रतिकूल हो जाय तो उसके असली माता-पिता को बुलाकर उसको नर्मी के साथ समझात्रे ||२५|| यदि फिर भी वह दुष्टता अथवा गुरूर के कारण न समझे तो उससे नाता तोड़कर भाई-बन्धुओं और राजा और राजकर्मचारियों की आज्ञा लेकर उसको घर से निकाल दे। फिर राजा और पंच लोग उसकी फ़रयाद नहीं सुन सकते । इसके पश्चात् वह औरत ( दत्तक पुत्र की माता ) दूसरा पुत्र गोद ले सकती है। } क्योंकि सब वर्गों में पुत्र सुख के लिए ही लिया जाता है || २६ – २८ ॥
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