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________________ चिह्नित कराकर तत्पश्चात् अपने कुटुम्ब के नर-नारियों को बुलाकर मङ्गलाचारपूर्वक वादिन नृत्य गान आदि करावे ॥ ४३-४४ ॥ द्वारोद्घाटनसत्कर्म कुर्वन्ति श्रीजिनालये। घृतकुम्भं स्वस्तिकं च जिनाने स्थापयेद् गुरुम् ।। ४५ ।। अर्थ-और श्रीजिनचैत्यालय में जाकर द्वारोद्घाटन आदि सक्रिया करें तथा श्रीजिनेन्द्र देव की प्रतिमा के आगे घृतकुम्भ स्वस्तिक आदि रक्खें ॥ ४५ ॥ उत्तरीयमधोवस्त्र दत्वा व्याघुट्य मन्दिरम् । स्वं समागत्य नृस्त्रिभ्यस्ताम्बूलं श्रीफलादिकम् ।। ४६ ।। स्त्रीभ्यश्च कञ्चुकीर्देयात्कुंकुमालक्तपूर्विकाः । अशनं कारयित्वा वै जातकर्मक्रियां चरेत् ॥ ४७ ।। अर्थ-फिर श्रीमन्दिरजी में धोती-दुपट्टा पूजा के निमित्त दे, घण्टा बजावे और अपने घर आकर पुरुष-स्त्रियों को ताम्बूल, श्रीफल आदि दे तथा स्त्रियों को कुंकुमादि-संयुक्त कंचुकी (आँगी धोती) दे और भोजन कराकर जात-कर्म नामक क्रिया ( जन्म-संस्कार ) करे ।। ४६-४७ ॥ परैर्धात्रादिभिर्नीतं मुकुटं श्रीफलादिकम् । एकद्वित्रिचतुरोऽपि मुद्रा रक्षेत्पिता शिशोः ॥ ४८ ।। अर्थ-बालक का पिता दूसरे भाई वगैरह कुटुम्बियों द्वारा लाये गये मुकुट, श्रीफलादिक तथा एक दो तीन चार आदि मुद्रा ( रुपये) ले ले ॥४८॥ व्यवहारानुसारेण दानं ग्रहणमेव च । एतत्कर्मणि संजातेऽयं पुत्रोऽस्येति कथ्यते ॥ ४६ ।। अर्थ-इस प्रकार अपने कुलादि व्यवहार के उचित देना-लेना जब हो जावे तब "इसका यह पुत्र है। ऐसा कहा जाता है ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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