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________________ तदैव राज्यकर्मादिव्यापारेषु प्रधानताम् । प्राप्नोति भूमिग्रामादिवस्तुष्वपि कृतिं पराम् ।। ५० ॥ अर्थ-और उसी समय उस पुत्र को राज्यकर्मादि व्यापारों में प्रधानता तथा भूमिग्रामादि वस्तुओं में अधिकार मिलता है ॥५०॥ स्वामित्वं च तदा लोकव्यवहारे च मान्यताम् । तत्संस्कारे कृते चैव पुत्रिणौ पितरौ स्मृतौ ॥ ५१ ।। अर्थ-और तभी लोक के व्यवहार में स्वामित्व तथा मान्यता होती है। और पुत्र के जन्म-संस्कार करने पर ही माता-पिता दोनों पुत्रवाले कहे जाते हैं ॥ ५१ ।। दत्तकः प्रतिकूलः स्यात् पितृभ्यां प्राग्मृदूक्तितः । बोधयेत्त पुनर्दीत् तादृशो जनकस्त्वरम् ।। ५२ ।। तत्पित्त्रादीन तदुद्वान्त ज्ञापयित्वा प्रबोधयेत् । भूयोऽपि तादृशश्चैव बन्धुभूपाधिकारिणाम् ॥ ५३ ॥ आज्ञामादाय गृहतो निष्कास्यो ह्य कस्त्वरम् । न तन्नियोगं भूपाद्याः शृण्वन्ति हि कदाचन ॥ ५४ ।। अर्थ-यदि दत्तक पुत्र माता-पिता की आज्ञा से प्रतिकूल हो जावे तो वे उसको कोमल वचनों के द्वारा समझावे'; यदि न समझे तो पिता उसको धमकाके समझावें। इस पर भी यदि न समझे, तो उसके पूर्व माता-पिता से उसका अपराध कहकर समझावें। यदि फिर भी वह जैसा का तैसा ही रहे, तो अपने कुटुम्बी जनों की तथा राजा के अधिकारियों की आज्ञा लेकर उसे घर से निकाल देना चाहिए। इसके पश्चात् उसके अधिकार की प्रार्थना राजा स्वीकार नहीं कर सकता ।। ५२-५४ ।। दत्तपुत्रं गृहीत्वा या स्वाधिकार प्रदाय च । जङ्गमे स्थावरे वाऽपि स्थातु स्वधर्मवद्मनि ॥ ५५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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