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________________ कस्यचिद्बहुपत्नीषु का प्रजनयेत्सुतम् । तेन पुत्रेण महिलाः पुत्रवत्यः स्मृताः बुधैः ॥ ३६ ॥ अर्थ-यदि किसी पुरुष की बहुत स्त्रियों में से किसी एक के पुत्र हो तो वे सभी स्त्रियाँ उस पुत्र के कारण पुत्रवती समझनी चाहिएँ, बुद्धिमानों की ऐसी आज्ञा है ॥ ३८ ॥ तासां मृतौ सर्वधनं गृह्णीयात्सुत एव हि । एको भगिन्यभावे चेत्कन्यैकस्याः पतिर्वसाः ॥ ४० ॥ अर्थ - उन सब स्त्रियों के मरने पर उनका धन वह पुत्र लेता है और जब एक भी स्त्री उसके पिता की न रहे तो वह पिता का कुल धन लेता है ॥ ४० ॥ औरसेऽसति पितृभ्यां ग्राह्यो वै दत्तकः सुतः । सोऽप्यरस इव प्रीत्या सेवां पित्रोः करोत्यसौ ॥ ४१ ॥ -- अर्थ — अपने अङ्ग से उत्पन्न हुआ पुत्र यदि न हो तो मातापिता को दत्तक पुत्र लेना चाहिए, क्योंकि दत्तक पुत्र भी माता-पिता की सेवा प्रीतिपूर्वक करता है ॥ ४१ ॥ अपुत्रो मानवः स्त्री वा गृह्णीयाद्दत्तपुत्रक । ू पूर्व तन्मातृपित्रादेः ससाक्षिलेखनं स्फुटम ॥ ४२ ॥ अर्थ — निःसन्तान स्त्री अथवा पुरुष पुत्र गोद लेते हैं - ही उसके माता-पिता के हस्त से साक्षिपूर्वक लेख लें ॥ ४२ ॥ ܢ स्वकीय भ्रातृज्ञातीयजनसाक्षियुतं मिथः । कारयित्वा राजमुद्राङ्कित भूपाधिकारिभिः ॥ ४३ ॥ कारयेत्पुनराहूय नरनारी: कुटुम्बिका: । वादित्र नृत्यगानादिमंगलाचारपूर्वकम ॥ ४४ ॥ Jain Education International अर्थ - परस्पर अपने भाई-बन्धु और जातीय पुरुषों के साक्षि सहित ( लेख को ) राजा के कार्यभारी पुरुषों से राजा की मुद्रा से 1 प्रथम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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