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अर्थ-गृह में जो दासी से उत्पन्न हुए पुत्र हों तो उनका पालन छोटे भाई को करना चाहिए अथवा सब भाई मिलकर अन्न-वस्त्र का प्रबन्ध करें ॥३४॥
क्षत्रियस्य सवर्णाजोऽर्द्धभागी वैश्यजोद्भवः । तुर्याशभागी शूद्राजः पितृदत्तांशुकादिभृत् ॥३५॥
अर्थ-क्षत्रिय पिता से सवर्णा स्त्रो (क्षत्रिया) से उत्पन्न हुए पुत्र को पिता के द्रव्य का अधांश तथा वैश्याज पुत्र को चतुर्थांश मिलना चाहिए, और शूद्रा से उत्पन्न हुआ जो पुत्र है वह जो द्रव्य ( अन्नवस्त्रादिक ) उसको उसके पिता ने दिया है उसी का स्वामी हो सकता है ( अधिक नहीं)॥ ३५ ॥
वैश्यस्य हि सवर्णाज: सर्वस्वामी भवेत्सुतः । शूद्रापुत्रोऽन्नवासोई इति वर्णत्रये विधिः ।। ३६ ॥
अर्थ-वैश्य का वैश्य स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र ही सर्व सम्पत्ति का अधिकारी हो सकता है, शूद्रा से उत्पन्न हुआ लड़का केवल अन्न-वस्त्र का ही अधिकारी है। इस प्रकार वर्णत्रय की विभाग की विधि है ॥ ३६॥
शूद्रस्यैकसवर्णाजा एको द्वौ वाऽधिका अपि । समांशभागिन: सर्वे शतपुत्रा भवन्त्यपि ॥ ३७॥
अर्थ--शूद्र पिता के शूद्रा स्त्री से उत्पन्न हुए पुत्र एक, दो तथा शत भी हों तो वे समभाग के अधिकारी हैं ॥ ३७ ॥
एकपितृजभ्रातृणां पुत्रश्चैकस्य जायते । तेन पुत्रेण ते सवें बुधैः पुत्रिण ईरिताः ॥ ३८ ॥
अर्थ-एक पिता के उत्पन्न हुए पुत्रों में से यदि किसी एक के पुत्र हो तो उस पुत्र से सभी पुत्र पुत्रवाले समझे जाते हैं, ऐसा बुद्धिमानों का कथन है ॥ ३८ ॥
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