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________________ भूमिका जैन-आगमों से प्रमाणित है कि जैन-धर्म न केवल भारत का वरन विश्व का प्राचीनतम धर्म है। इसकी प्राचीनता के सम्बन्ध में किसी भी रूप में प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है । प्रारम्भ से ही जैन-धर्म क्रियावादियों का धर्म रहा है-निरा प्रचारप्रसार इसका कभी लक्ष्य नहीं रहा । और, क्रियावादिता में उसकी आस्था का ही यह फल है कि, हजारों वर्षों के झोंके सह कर भी यह धर्म अब तक अपने मूल रूप में बना है-जबकि बाद में उद्भूत श्रमण-संस्कृति की अन्य शाखाएँ भारत में समाप्त ही हो गयीं। अहिंसा-प्रधान होने से जैन-धर्म ने कभी भी बल अथवा जोर-दबाव को प्रश्रय नहीं दिया। कितने विरोध इसने सहे, कितने दुर्दिन देखे, इसका इतिहास साक्षी है। ___ भारत की सभ्यता और संस्कृति का जैन-धर्म एक ऐसा अंग है कि उसे निकाल देने से हमारी संस्कृति का रूप ही विकृत और एकांगी रह जायेगा। पर, इसका और इसके साहित्य का प्रचार उस रूप में नहीं हो पाया, जिस रूप में उसकी अपेक्षा थी। इस मुद्रण के युग में भी, इसके अधिकांश ग्रंथ अब भी अप्राप्य और बहुमूल्य हैं। इसका फल यह रहा कि, साधारण जनता को क्या कहें, विद्वत्समाज का एक बहुत बड़ा अंश भारतीय संस्कृति के इस अविभाज्य अंग से अपरिचित है। - जैन भगवान ऋषभदेव को इस अवसर्पिणी का प्रथम तीर्थंकर मानते हैं। श्रीमद्भागवत् (प्रथम खंड, द्वितीय स्कंध, अध्याय ७, पृष्ठ १७३ ) में जहाँ विष्णु के २४ अवतारों का उल्लेख ब्रह्मा ने किया है, वहाँ भगवान् ऋषभदेव के लिए कहा गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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