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नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनु
यॊ वै चचार समहग् जडयोगचर्याम् ।
यत् पारमहंस्य मृषयः पदमामनन्ति
स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तिसङ्ग ॥ १० ॥
- राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के गर्भ से भगवान् ने ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया । इस अवतार में समस्त आसक्तियों से रहित रह कर, अपनी इन्द्रियों और मन को अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूप में स्थिर होकर समदर्शी के रूप में उन्होने जड़ों की भाँति योगचर्या का आचरण किया । इस स्थिति को महर्षि लोग परमहंस-पद कहते हैं ।
उसी ग्रंथ में ( स्कंध ११ अध्याय २, खंड २, पृष्ठ ७१० ) ऋषभदेव को अवतार होने की बात नारद ने भी कही है:तमाहुर्वासु देवांशं मोक्षधर्म विवक्षया
- ( शास्त्रों में उन्हें ) भगवान् वासुदेव का अंश कहा है । मोक्ष-धर्म का उपदेश करने के लिए उन्होंने अवतार ग्रहण किया ।
उसी ग्रन्थ में स्कंध ५, अध्याय ४ के २० - वें श्लोक में ( प्रथम खंड, पृष्ठ ५५६ ) आता है
वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्च्चमन्थिनां शुक्लया तनुवावतार
- श्रमणों ( जैन साधु ) ऋषियों तथा ब्रह्मचारियों ( ऊर्ध्वमंथन ) का धर्म प्रकट करने के लिए शुल्क सत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए )
इनके अतिरिक्त श्रीमद्भागवत् स्कंध १ अ० ३, श्लोक १३ ( पृष्ठ ५५), स्कंध ५, अ० ४, ( पृष्ठ ५५६-५५७) में भी भगवान् ऋषभदेव का उल्लेख है । उनकी चर्चा करते हुए स्कंध ५, अ० ६, ( पृष्ठ ५६८ ) में एक श्लोक है :--
नित्यानुभूत निजलाभनिवृत्त तृष्णः
श्रेयस्यतद्रचनया चिर सुप्तबुध्दे: । लोकस्य यः करुणा भयमात्मलोक माख्यानमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥
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